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ईश्वर होना चाहिये. कभी ईश्वर जीवोंको कर्मानुसार फल देता है ऐसा माना जाय तो भी जब कामी पुरुष व्यभिचारसें स्त्री के पूर्वकर्मानुसार फल मिला तब वो फल ईश्वरने उसको दिया और उस कामी पुरुषको व्यभिचार द्वारा वह फल मिला इसलिये यह व्यभिचार की इच्छा ईश्वर ने पैदा कीशवाय इसके उस स्त्रीको या उस पुरुषको पूर्वोक्त फल कैसे मिल शकता ?" उस गृहस्थने कहा महाराज ! ईश्वर तो साक्षी मात्र है. " महाराजजीने कहा हम भी निaarat अपेक्षासें कहते हैं कि, आत्मा (ईश्वर) साक्षी मात्र है. उस गृहस्थने कहा महाराज ! ऐसा है तब आपके और हमारे मतमें क्या तफावत है ? " महाराजजीने कहा " तुम वस्तुका एक धर्म ग्रहण करके एकांतवादमें दूसरे धर्मोको स्वीकारते नहीं हो, हम वस्तुके सबही धर्म अंगीकार करते हैं. परंतु कथनमें सर्व धर्म युगपत् कथन करने अशक्य होनेसें और सबधर्म एक दूसरेके साथ ऐसे मिले हुए हैं कि एक दुसरे से सर्वथा छुटे नहीं पढ सकते हैं. इस सबबसें जब हमको एक या ज्यादा धर्म के संबंधमें व्याख्यान करना पडता है तब कहते हैं कि " स्यात् अस्ति इत्यादि " अर्थात् कथंचित् ( अमुक अपेक्षा वस्तु है, कथंचित् नही है, ) इत्यादि. "
इस संभाषणसें वह गृहस्थ बहुतही संतुष्ट होकर महाराजजीके गुणानुवाद करता करता स्वस्थानमें गया. जैसें साधारण वातचीत में ऐसें व्याख्यान में भी स्याद्वाद मार्गकी शैली महाराजजीके शब्द शब्द में व्यापीहुई मालूम पडती थी. " षड्दर्शन जिन अंग भणीजे " यह आनंदधनजी महाराजका वाक्य सत्य है. यह बात उनके साथ मात्र पांच मिनीट बात करनेसें मालूम होती थी.
कोई अनजान गृहस्थ महाराजजी पास शंका के पूछनेको आते तो उनकी शंकाका समाधान प्रश्न पूछने के पहिलेही प्रायः बातचितमें होजाताथा. जैन समुदायके उपर महाराज - जीश्रीने जो जो उपकार किये हैं, वे सर्व अवर्णनीय हैं. धर्म संबंधी ज्ञान जैनोंमें बहुत कचा होगया है यह तो जाहिर बात है. कोई युवान धर्मज्ञान प्राप्त करनेको चाहता था तो उसको साधन मिलते नहिं थे. साधन प्राप्त होते तो समझने में मुस्केली पडतीथी. यह बडा अंतराय जो जज्ञासु पुरुषके मार्ग में था सो इन्होनें दूर किया. जैन तत्वादर्श जैसा अमूल्य ग्रंथ हिंदी सरल भाषा में लिखकर जैनों के तत्व समझने में आवे इसतरह लोक समक्ष रजु किया यह कुच्छ कम उपकारका काम नहीं है. कितनेक अनसमजु लोकोंका मत है कि ज्ञानको भंडारमेंज रखना. ज्ञान पंचमी जैसे दिनों में पुजा में रखना, परंतु जिनेश्वर भगवानने पुका के उपदेश किया है कि आत्माका ज्ञान गुण बहार आवेगा तबही सिद्धिपदकी प्राप्ति होगी. ज्ञान अभ्यासके लीये है, नहिके संग्रहके लिये, ज्ञानको गुप्त रखनेसे, लोगोंको ज्ञानके साधन शक्तिके होये भी नहीं देने सें ज्ञानावर्णीय कर्म बंधाता है, यह जैन सिद्धांत है और यह सिद्धांत के अनुसार महाराजजी श्रीने जगा जगा पुस्तकालय बनवाके पुस्तकद्वारा और उपदेशद्वारा ज्ञानका फेलाव किया है और यह पुस्तक भी उसी ज्ञानका फल है, हम सब इस भाग्यवान महा पुरुषके उपकारनीचे दबे हुए
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