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तत्त्वनिर्णयप्रासाद
क्तस्य रिपुप्रहारिणः प्रपञ्चतोनुग्रहशापकारिणः । सामान्यपुंवर्गसमानधर्मिणो महत्वक्लृप्तौ सकलस्य तद्भवेत् ॥ १ ॥ भावार्थ: । काममें रक्त, प्रपंच शत्रुओंको प्रहार करनेवाला, अनुग्रह और शाप करनेवाला, ऐसें सामान्य पुरुषवर्ग के सदृश कृत्यके करनेवालेको महत्वकी कल्पना करे हुए, सर्वप्राणियों में भी महत्वकी कल्पना होवेगी. अर्थात् ब्रह्माका भी, विष्णु छलकरके शत्रुओंको मारनेवाला, और महादेव तुष्टमान रुष्टमान होनेवाला, यदि इत्यादिकोंमें महत्वकी कल्पना होवे तो, तादृश सर्व प्राणियोंमें भी होनी चाहिए. ॥ १ ॥ पुन: यहां 'अधीमहि' और 'वास' ये विशेपण तिनके रागके सूचकही नही है, किंतु साहचर्यसें द्वेष और मोह भी जान लेने; तिनके पास शस्त्रादिके सद्भावसें, तिनमें द्वेष सिद्ध होता है; और पूर्वापर व्याहत अर्थवाला आगम कहनेसें मोह अज्ञानका सद्भाव सिद्ध होता है. ॥ यदुक्तं ॥ “ रागोङ्गनासंगमनानुमेयो द्वेषो द्विषद्दारणहेतिगम्यः । मोहः कुवृत्तागमदोषसाध्यः" इत्यादि ॥ भावार्थः ॥ राग तो स्त्रीसंगमनसें अर्थात् स्त्रीसें भोगविलासममतादिसें अनुमेय है, द्वेष वैरीयोंके मारनेवास्ते शस्त्रोंके रखनेसें अनुमेय है, और कुत्सित आचरण और पूर्वापरव्याहतिवाला शास्त्र कथन करनेसें मोह-अज्ञान अनुमेय है, इत्यादि ॥ आचार्यादिकोंके तो सर्वथा रागादि क्षय नही है, ऐसे मत कहना. क्योंकि, तिनको भी आप्तके उपदेशसें रागादिके क्षयवास्तेही प्रवृत्त होनेसें, तथाविध रागादिके असद्भावसें, और तिस रागादिकका आगामि कालमें क्षय होनेसें. भाविनिभूतवदुपचारात् - तिनको भी वीतरागताही है. यहां भावाचार्यादिकोंकरकेही अधिकार है, इसवास्ते सर्व समंजस है ॥ इत्यार्हताभिप्रायेण मंत्रव्याख्या ॥ १ ॥ अथाक्षपादाभिप्रायेण व्याख्यायते तत्रादौ मन्त्रः ॥
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ॐ भूर्भुवः स्वस्तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गोदेवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात् ॥ १ ॥ २ ॥
ॐ । भूर्भुवःस्वस्तत् । सवितुः । वरेण्यं । भर्ग । उदे । अव । स्य । श्रीम् । अहिधियः । अयो । नः । प्रचोदया । अत् ॥ २ ॥
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