SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 386
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ एकादशस्तम्भः । ૨૦૦ भाषार्थः - (म्) यह ॐकार पंच परमेष्ठीको कहता है, कैसें कहता हैं ? सोही कहते हैं 'अर्हन्तः ' इस पदका आद्य अक्षर अकार है, ‘अशरीरा:’-सिद्धाः-इस पदका आय अक्षर अकार है 'आचार्य' इसका आद्य अक्षर आकार है, 'उपाध्यायाः' इसका आद्य अक्षर उकार है, 'मुनिः' इसका आद्य व्यंजन स्वररहित मकार है, इन सर्वका संधि होनेसें 'ॐ' सिद्ध होता है. * पदके एक देशमें भी पदका उपचार होने से ऐसी उक्ति है. सोही ॐकार असाधारण गुणसंपदाकरके विशेषण वाला कथन करिये हैं ( भूर्भुवःस्वस्तत् ) 'भू:' यह अव्यय भूलोकका वाचक है 'भुवः' पाताललोकका, और 'स्वः' स्वर्गलोकका, तीनोंका इंद्रसमास होनेसें 'भूर्भुवः स्वः' अर्थात् अधोलोक, तिर्यग्लोक, और स्वर्गलोकरूप तीनों लोकोंको, 'तत्' 'तनोति - ज्ञानात्मना व्याप्नोति' ज्ञानात्माकरके व्यापक होवे, सो 'भूर्भुवः स्वस्तत्' अर्हत् सिद्धों को सर्व द्रव्यपर्यायविषयक केवलज्ञानात्माकरके तीनों लोकों में व्याप्त होना प्रसिद्धही है । ज्ञान और आत्माका 'स्यादभेदात् ' कथंचित् अभेद होनेसें. शेष आचायदि तीनों को भी, श्रद्धानविषयकरके सर्वव्यापित्व है, 'सव्वगयं सम्मत्तमितिवचनात्' अथवा सामान्यरूप ज्ञानकरके सर्वव्यापित्व है | इसवास्तेही ( सवितुः वरेण्यम् ) सहस्ररश्मीयोंवाले सूर्य सें भी प्रधानतर है, सूर्यके उद्योतको देशविषयक होनेसें, और इन अर्हदादि पांचों संबंधि भावउद्योतको सर्वविषयक होनेसें । आहुश्च पूज्याः । चंदाइच्चगहाणं पहा पयासेइ परिमियं खित्तं । केवलियनाणलंभो लोगालोगं पयासे ॥१॥ + ऐसें न कहना कि आचार्यादि तीनोंको केवलज्ञानका लाभ नही है तो, तिनको व्यापित्व कैसें है? क्योंकि तिनको भी कैवलिकज्ञानोपलब्ध पदा * ॥ अरिहंता असरीरा आयरिया उवब्भाया मुणिणो । पंचरकर निप्पन्नो ॐकारों पंचपरमेट्ठी ॥ १ ॥ इतिवचनात् ॥ + [ चंद्रादित्यग्रहाणां प्रभाः प्रकाशयति परिमितं क्षेत्रम् | कैवलिकज्ञानलाभो लोकालोकं प्रकाशयति ] भावार्थ:- चंद्रसूर्यग्रहोंका प्रकाश, प्रमाणसंयुक्त क्षेत्रको प्रकाश करता है; और केवलज्ञान, लोकालोको प्रकाश करता है; इसवास्ते सूर्यके प्रकाशसें केवलज्ञानका प्रकाश प्रधानतर है । इति ॥ ३६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003207
Book TitleTattvanirnaya Prasada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAmarchand P Parmar
Publication Year1902
Total Pages878
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy