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दशमस्त। है ? क्योंकि, जो ऋचायोंका कर्ता है, सोही सोको नमस्कार करता है. जेकर कहो कि, यजमान सोको नमस्कार करता है, तब तो ऋचायोंका भी कर्ता यजमानही सिद्ध होवेगा, नतु परमात्मा. जेकर परमात्माही यजमानसे सर्पोको नमस्कार करवाता है, तब तो परमात्माही अज्ञानका पोषक, और तिर्यंचादिकोंको नमस्कार करानेसें असमंजसकारी है; इसवास्ते वेद परमात्माके रचे हुए नहीं हैं.
तथा यजुर्वेदके १९ मे अध्यायमें सौत्रामणी यज्ञका वर्णन है, जिससे भी यही सिद्ध होता है कि, वेद अनादि, वा ईश्वरकृत नही है; किंतु अज्ञानीयोंका अज्ञान विजूंभित है. सो जो कोइ पक्षपातरहित होकर वांचेगा, और शोचेगा, तो उसको मालुम हो जायगा. यद्यपि इस अध्यायमें विस्तारपूर्वक वर्णन है, और कुछ भी परमार्थ सिद्ध नहीं कर सक्ता है, तथापि भव्य जीवोंको वेदकी लीला जाननेकेवास्ते संक्षेपमात्रसे भावार्थमात्र लिखते हैं. ॥ श्रुति १२ में भाष्यकार महीधरजी लिखते हैंअनुपहूत सोमके पीनेसें भ्रष्ट हुए इंद्रका वीर्य, नमुचिनामा असुर पीता भया, तब देवताओंने इंद्रका भैषज्य करा, तिसमें अश्विनीकुमार, और सरस्वती, ये तीन भिषज अर्थात् वैद्य हुए. और सौत्रामणी औषध हुआ, इत्यादि-अब श्रुतिका अर्थ लिखते हैं-देवता सौत्रामणीनामा यज्ञ इंद्रके औषधरूप भेषजको विस्तारते हुए, तिससमयमें अश्विनीकुमार, और सरस्वती, ये तीन इंद्रकेतांइ सामर्थ्यके देनेवाले वैद्य होते भए.
श्रुति ३४-नमुचिने इंद्रका वीर्य पीया, तिसको मारनेसें रुधिरमिश्र सोम उत्पन्न हुआ, तिसको देवते पीते हुए.-असुरपुत्र नमुचिके पाससे अश्विनीकुमार सोम हरते भए, और इंद्रके वीर्यकेवास्ते सरस्वती, तिस अश्विनीकुमारके लाए हुए सोमको पीसती हुई. तिस अश्विनीकुमारके हरे हुए, और सरस्वतीके पीसे हुए, इस सोमको इहां यज्ञमें मैं भक्षण कर कैसा है सोम ? रुधिरकरकेरहित रसवाला, और परमैश्वर्य देनेवाला है.
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