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तत्त्वनिर्णयप्रासाद- वेदांतीः-इसका तात्पर्य तुम नहीं जानते, इसका तात्पर्य यह है कि, इंद्र भी ब्रह्मज्ञानी था, और अपाला भी ब्रह्मज्ञानिनीथी, इसवास्ते तिनके ज्ञानमें ब्रह्मविना अन्य कुछ भी नहीं था; इसवास्तेही तिसके मुखसें मुख लगाके सोमरस इंद्रने चूसा. ब्रह्मसें ब्रह्म मिल गया, इसमें क्या दोष है ?
उत्तरः--इसकालमें कितनेक वेदांती परस्त्रीयोंसें भोग करते हैं, तिन स्त्रीयोंके मुखकी लाला चाटते (चूसते) हैं; क्या वे भी ऐसा ब्रह्म एकत्व समझकरकेही करते होवेंगे ? वेदांती:--हां.
उत्तरः-तब तो माता, बहिन, बेटीके गमन करनेमें भी कुछ दोष नही होना चाहिए.
वेदांती:--है तो ऐसेंही, परंतु जगत्व्यवहार उल्लंघन करना न चाहिए.
उत्तरः--जबतक ब्रह्मज्ञानी जगव्यवहार मानेंगे, और माता, बहिन, बेटीको अगम्य जानेंगे, तबतांइ तिनकी माया (भ्रांति) दूर नहीं होनेसें तिनको ब्रह्मज्ञान नही होवेगा. असल ब्रह्मज्ञानी तो ब्रह्माजी थे, जिनोंने सर्व जगत्को ब्रह्मरूप अपनाही स्वरूप जानकर अपनी पुत्रीसेंही संभोग करा; यही प्रायः सर्ववेदांतियोंका तात्पर्य (सिद्धांत) है.
और अपालाके पिताके शिरमें टट्टरी होनेसे अपालाके बापको क्या दुःख था ? क्या उसको जान चडना था ? और अपालाके गुह्यस्थानमें राम नही थे तो, तिसको क्या दुःख था ? हां, जेकर इंद्रसे यह मांगती कि, मेरे शरीरका तूं रोग दूर कर, सो तो वर मांगा नही. वो तो इंद्रने आपही मुखकी चगल सोमरस पीके संतुष्ट होके तिसको यंत्रमेसें बैंचके छील छालके अच्छी (चंगी) कर दीनी. इस पूर्वोक्त श्रुतियोंके कथनमें सत्य कितना है, और झूठ कितना है, सो वाचकवर्ग आपही विचार लेवेंगे. क्योंकि, मनुष्यकी चमडीसें भी क्या मयना (शल्यक), गोह, और किरले, उत्पन्न हो सक्ते हैं ? कदापि नही हो सक्ते हैं. इसबास्ते वेद ईश्वरके कथन करे नही सिद्ध होते हैं। किंतु ब्राह्मणोंकी स्वकपोलकल्पना सिद्ध होती है. इति ॥
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