________________
२६४
तत्वनिर्णयप्रासाद
॥ अथ तृतीया ॥
आ चन त्वाचिकित्सामोधिं चन त्वा नेम॑सि । शनैरिव शनकैरिवेन्द्रायेन्दो परि' स्रव ॥ ३ ॥ ॥ अथचतुर्थी ॥ कु॒विच्छक॑त्क॒वित्र॑त्क॒विन्नो॒ वस्य॑स॒स्कर॑त् । कु॒वित्प॑ति॒द्वषो य॒तीरिन्द्रेण संगमम ॥ ४ ॥
॥ अथपंचमी ॥
इ॒मानि॒ त्रीणि॑ वि॒ष्टपा॒तानी॑न्द्र वि रोहय । शिरस्ततस्योर्वरामादिदं म उपोदरे ॥ ५ ॥
**
॥ अथषष्ठी ॥
असौ च या न उर्वरादिमां तन्वं ममं ।
अथो' ततस्य यच्छिरः सर्वा ता रोमशा कृधि ॥ ६ ॥ ॥ अथसप्तमी ॥
खे रथ॑स्य॒ खेन॑सः खे यु॒गस्य॑ शतक्रतो । अ॒पालामि॑न्द्र॒ त्रिष्पू॒व्यकृ॑णो॒ः सूर्य॑त्वचम् ॥ ७ ॥
ऋ० सं० अष्ठक ६ । अ० ६ ॥ अब वाचकवर्गों ! विचार करो कि, यह कथन परमेश्वर सर्वज्ञका सिद्ध हो सक्ता है ? प्रथम तो इस सूक्तका अपाला स्त्रीही ऋषि है, और परमेश्वरने तिसके तपसें तुष्टमान होके तिसको यह अपूर्व ज्ञानरसमें भरा सूक्त दीना ! तिसमें पूर्वोक्त कथन होनेसें, वेद, अनादि अपौरुषेय कैसे सिद्ध हो सक्ता है ? और अपाला तो, ब्रह्मवादिनी थी, तिसको पिताके शिरकी टहरी, उषरक्षेत्र, गुह्यस्थानोपरि केश न होने, इनकी चिंता क्यों हुई; क्योंकि, तिसके ज्ञानमें तो ये तीनों वस्तुयों माया ( भ्रांति ) रूप
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org
Jain Education International