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नवमस्तम्भः। है. क्योंकि, जो पर्यालोचन करना है, सोही असर्वज्ञका लक्षण है; इसवास्ते ब्रह्माजी सर्वज्ञ नहीं थे, ऐसा सिद्ध हुआ, जब सर्वज्ञ नही थे तो, यथार्थ सर्व जगतकी रचना करनेमें भी समर्थ नही सिद्ध होवेंगे. और यह जो लिखा है कि, प्रजापतिने तीनों लोकोंको तप करायाक्या तीनों लोकोंको पंचधूणीतपनरूप तप कराया? वा ऊपर लिखे जैनमतके समान तप कराया ? वा पर्यालोचनात्मक तप करवाया ? वा चांद्रायणादि करवाया ? जिससे तीनों लोक थक गए, तप्त संतप्त हो गए. इनमेसें किसी भी प्रकारके तप करानेका संभव नही हो सक्ता है. क्योंकि, तीनों लोक तो पंचभूतात्मक होनेसें जडरूप हैं, तो फेर, यह क्या जानके लिख दिया कि, प्रजापति तीनों लोकोंको तप कराते भए ? प्रथम तो चेतनब्रह्मसें इन जडरूप तीनों लोकोंका उत्पन्न होनाही असंभव है तो, तप कराना तो दूरही रहा !!! जब तीनों लोक तप करके श्रांत तप्त संतप्त हुए, तब तिन तीनोसें अग्नि, वायु, सूर्य, उत्पन्न करे, तिन तीनोंको तप कराके तिन तीनोंसें ऋग्वेदादि तीन वेद उत्पन्न करे. इत्यादि-क्या तिन तीनोंके अंदर वेद स्थापन करे थे, अर्थात् वेदोंके पुस्तक लिखे हुए थे ? जो बैंचके निकाल लिये. तथा अग्न्यादि तीनों तो जड भौतिक लोकोंमें प्रसिद्ध है, इसवास्ते वे वेदका उच्चार भी नहीं कर सक्ते हैं. यदि कहोंगे, वे तीनों देवते होनेसें चैतन्य है, जड नही; यह भी ठीक नहीं है. जडरूप पृथिव्यादि उपादानसें अग्न्यादि चैतन्यकार्य कबी भी नही हो सक्ता है. तथा क्या तिन देवताओंके मुखसें ब्रह्माजीने वेदोंका प्रथम उच्चार कराया था ? यदि करेंगे उच्चार नही करवाया, किंतु तिन देवताओंसेंही प्रथम यज्ञादि करवाए. यह कहना तो, बहुतही असंगत है. क्योंकि, जिनोंसें यज्ञादि कर्म प्रथम करवाए, वे तो यज्ञादिकर्मोकी उत्पत्तिके अपादान हो सक्ते है, परंतु वेदोंके नही. इसवास्ते वेदश्रुतिके दूषणोंको दूर करनेवास्ते अपनी कपोल कल्पनासें अटकलपच्चुके अर्थ करने, यह विद्वानोकी मंडलीमें उपहास्यका कारण है.
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