SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 351
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २४८ तत्त्वनिर्णयप्रासाद पृथिवी १, पेट आकाश २, और मस्तकसें स्वर्ग ३. यह तीनों पुस्तकोंका कथन, ऋग्वेद यजुर्वेदादिकोंसें विरुद्ध है. क्योंकि, ऋग्वेद यजुर्वेद में प्रजापतिने तप करा ऐसा कथन नही है. और यहां है. यह परस्पर विरुद्ध | १ | तथा ऋग्वेद यजुर्वेद में प्रजापतिके पगोंसें भूमी, नाभिसें आकाश, और मस्तकसें स्वर्ग, ऐसा उत्पत्तिक्रम लिखा है; और यहां पेटसें आकाशकी उत्पत्ति लिखी है. यह परस्परविरुद्ध. । २ । फिर प्रजापतिने पूर्वोक्त पृथिवीआदि तीनों लोकोंको तप करायके उनोंसें तीन देवते उत्पन्न किये; पृथिवीसें अग्नि १, आकाशसें वायु २, और स्वर्गसें सूर्य ३; ऋग्वेद यजुर्वेदमें लिखा है कि, प्रजापतिके मुखसें अग्नि १, ऋग्वेद प्रजापतिके प्राणसें वायु और यजुर्वेद में प्रजापतिके कानोंसें वायु २, और दोनोंमेंही प्रजापतिके नेत्रोंसें सूर्य ३, ऐसे इन देवताओं की उत्पत्ति लिखी है; यह परस्पर विरुद्ध. । ३ । फिर प्रजापतिने पूर्वोक्त अग्नि आदिक देवताओंको तप करायके उनोंसें तीनोंही वेद उत्पन्न करे; अग्निसें ऋग्वेद १, वायुसें यजुर्वेद २, और आदित्य (सूर्य) से सामवेद ३. । ऋग्वेदयजुर्वेदमें चारों वेदोंकी उत्पत्ति मानसनामा यज्ञसें लिखी है; तथा अथर्ववेदमें लिखा है, ऋग्वेद और यजुर्वेद पर - मात्मासें उत्पन्न हुआ है, सामवेद परमात्माके रोम है, और अथर्ववेद परमात्माका मुख है । शतपथमें लिखा है, चारों वेद परमात्माके निःश्वास रूप है । यह परस्परविरुद्ध. ॥ ४॥ तथा प्रजापतिने तप करा - क्या प्रजापतिने जैनीयोंकीतरें उपवास, छठ्ठ, अट्ठम, दशम, द्वादशम, अर्द्धमासक्षपण, मासक्षपणादि, वा रत्नावलि, कनकावलि, मुक्तावलि, घन, प्रतर, लघुसिंहनिक्रीडित, बृहत् सिंहनिक्रीडित, आचाम्लवर्द्धमानादि तीनसौसाठ प्रकारके तपमेसें कोइ तप करा था ? वा चांद्रायणादि ? पूर्वपक्ष: - प्रजापतिने पर्यालोचनात्मक तप करा था. उत्तरपक्षः - ब्रह्माजी प्रजापतिको तो, वेदों में सर्वज्ञ लिखे हैं । प्रथम तो सर्वज्ञको पर्यालोचन करना लिखा है, यह सर्वज्ञताको हानिकारक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003207
Book TitleTattvanirnaya Prasada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAmarchand P Parmar
Publication Year1902
Total Pages878
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy