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तत्वनिर्णयप्रासाद(यां) अर्थात् स्वर्गलोकको तथा (उतइति वितर्के ) इमां इस भूमिलोकको (दाधार ) त्वजादित्वादीर्घः । धारण करता भया और (पृथिवी) यह अंतरिक्ष (आकाश) का नाम है सो यास्कमुनिप्रणीत निघंटुके अ० १ खं० ३ में ९ नवमा नाम है (कस्मै देवाय हविषा विधेम) कः नाम प्रजापतिका है इससे (कस्मै ) अर्थात् प्रजापतिके लिये हम हविको (विधेम) दद्मः-प्रदान करते हैं अथवा तिस हिरण्यगर्भको परित्याग कर हम ( कस्मै) किसकेलिये हविः प्रदान करें यह इस प्रकार लौकिक अर्थ कर लेना॥
[समीक्षा ] यह यजुर्वेदका मंत्र, ऋग्वेग यजुर्वेद गोपथब्राह्मणसें विरुद्ध है. क्योंकि, इन पूर्वोक्त तीनों स्थानोंके पूर्वोक्त मंत्रमें ब्रह्माजी अंडेमें उत्पन्न हुए ऐसा नहीं कहा है, और इस श्रुतिमें ब्रह्माजी अंडेमें उत्पन्न हुए लिखा है, इसवास्ते यह तीनों सर्वज्ञ भगवान्के कथन करे हुए नही सिद्ध होते हैं. और जो इसमे कथन है, सो युक्तिप्रमाणसें विरुद्ध है, इ. सीवास्ते अपने २ मनःकल्पित अर्थ इसके लोक करते हैं, जैसे कि, पूर्वोक्त अर्थमें ब्रह्मकुशलोदासीने करे है. क्योंकि, पूर्वोक्त अर्थ भाषानुसार नही है. जो लौकिक अर्थरूप भावार्थ उदासीजीने निकाला है, सो भाव्यकारको न पाया. शोक ! ! ऐसे बिहुदे शास्त्रोंको भी लोक परमेश्वरकेही कथन किये मानते है; यदि जिसने जो अर्थ किया सोही खरा (सर्वज्ञोक्त प्राचीन अर्थोके न होनेसें, और यदि है तो, बताने चाहिए. क्योंकि, सांप्रत कालमें जो झगडें हो रहे हैं, प्राचीन अर्थोके न होनेसेंही हो रहे हैं. यदि कहोंगे, प्राचीन अर्थ थे तो सही, परंतु इस समय है नही. तो सिद्ध हुआ वेद भी नही है. किसीने वेदका नाम रखके पुस्तक जगत्में प्रसिद्ध किया है, अर्थवत्. यदि वेदके पुस्तक हैं तो, उसके अर्थ तुम नहीं जान सक्ते हो. जब अर्थही नहीं जान सक्ते हो तो, तुमको कैसें निश्चय हुआ कि यह ईश्वरोक्त है? ) मानोंगे तो, यह अर्थ भी तुमकों मानना पडेगा. कल्पनाद्वारा अर्थ सिद्ध होनेसें--प्राचीन मुनिप्रणीत अर्थोके न होनेसें-(उत इति वितर्के) (हिरण्यगर्भः) जो अंडेसें उत्पन्न हुआ, और
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