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अष्टमस्तम्भः।
२१३ कर्मोंका मुझे महादुःखरूप फल होवेगा; इसवास्तेही पाप करे; इस हेतुसें तुह्मारा ब्रह्म अज्ञानी सिद्ध होता है. तथा जेकर ब्रह्म विवेकी होता तो, पुण्यफलरूप शुभकर्मही करता, नतु अशुभ; परंतु उसने तो शुभाशुभ दोनो प्रकारके कर्म करे हैं, इसवास्ते तुह्मारा ब्रह्म अविवेकी सिद्ध होता है. जब आपही अपने दुःख भोगनेवास्ते जगत् रचता है, तब तो अपने पगोंमें आपही कुहाडा मारता है, इसवास्ते आत्मघाती भी सिद्ध होता है..
प्रलय दशामें माया, जीव, जीवोंके कर्म, सर्व सूक्ष्मरूप होके ब्रह्ममें लीन थे, जब ब्रह्मकों जीवोंके करे कर्म परिपक्व फल देनेमें सन्मुख हुए, तब परमात्माकों सृष्टि करनेकी इच्छा उत्पन्न होती है, यह कथन ४ अंककी श्रुतिमें है, इसमें हम यह पूछते हैं कि, प्रथम तो, जे शुभाशुभ कर्म जीवोंने करे थे, ते कर्म रूपी थे कि, अरूपि थे ? जेकर रूपि थे तो, क्या जड थे, वा चेतन थे ? अत्र द्वितीयपक्ष तो स्वीकारही नहीं है, संभव न होनेसें । अथ प्रथमपक्षः-जेकर जड थे, तब तो परमाणुयोंके कार्य थे, वा अन्य कोइ उनका सपादन कारण था ? जेकर परमाणुयोंके कार्यरूप थे, तब तो अद्वैतकी हानी सिद्ध होती है; जेकर अन्यकोइ उपादान कारण मानोंगे, सो तो है नहीं; क्योंकि परमाणुयोंके विना अन्य कोइ कारण, रूपी कार्यका नहीं है; जेकर अरूपि जड थे, तब तो सिद्ध हुआ कि, आकाशकेविना अन्य कोई वस्तु नही थी, और आकाश कर्मोका उपादान कारण नही सिद्ध होता है; जेकर अरूपि चेतन थे, तब तो जीव, कर्मोंका उपादान कारण सिद्ध हुआ, जब कर्म चेतन हुए, तब तो जीवोंके ज्ञान विचारोंकेही नाम कर्म हुए. अथ जो वह कर्म ज्ञानरूप है, ते परिपक्क फल देनेके उन्मुख हुए थके, क्या ब्रह्मकों खाज उत्पन्न करते हैं ? जो हम फल देनेके सन्मुख हुए है, इसवास्ते जगत् रचो! वा अंदर कोइ कर्मकी खेती बोइ हुइ है ? जिसके देखनेसें ब्रह्मकों सृष्टि करनेकी इच्छा उत्पन्न होती है! वा वे कर्म ईश्वरकों चुहंडीयां भरते है? जिसमें ईश्वर जानता है कि, येह परिपक्व होके फल देनेके सन्मुख हुए हैं ! अथवा कर्म ब्रह्मकेसाथ लडाइ करते हैं ? कि, जीवोंकों वं
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