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________________ Re0 तत्त्वनिर्णयप्रासादपुरुष, 'भूमि' ब्रह्मांडगोलकरूपभूमिकों 'विश्वतः' सर्व ओरसें 'वृत्वा' परिवेष्टन करके 'दशांगुलं' दशांगुलदेशकों ‘अत्यतिष्ठत्' अतिक्रमकरके व्यवस्थित है दशांगुल यह उपलक्षण है, इसवास्ते ब्रह्मांडसें बाहिर भी सर्व जगे व्याप्य होके स्थित है. ॥१॥ जो 'इदं' यद वर्तमान जगत् है, सो सर्व 'पुरुष एव' पुरुषही है 'यच्च भूतं' और जो अतीत जगत्, ' यच्च भव्यम् ' और जो भविष्यत् होणहार जगत्, (तदपि पुरुषएव) सोभी पुरुषही है. जैसें इस कल्पमें वर्त्तते प्राणियोंके देह है, ते सर्वही विराटपुरुषके अवयव है, तैसेंही अतीतानागतकल्पोंमें भी जानना, इत्यभिप्रायः ‘उतापि च' और 'अमृतत्वस्य' देवपणेका यह 'ईशानः' स्वामी है, यत् जिसकारणसें 'अन्नेन' प्राणियोंके अन्नरूप भोग्यकरके 'अतिरोहति' अपनीकारण अवस्थाकों अतिक्रमकरके परिदृश्यमान जगत् अवस्थाको प्राप्त होता है, तिसकारणसें प्राणियोंके कर्मफल भोगनेताइ जगत्अवस्था अंगीकार करनेसें यह तिसका वस्तुतल्ख नही है, इत्यर्थः ॥२॥ अतीतानागतवर्तमानरूप जगत् जहाँतक है 'एतावान्' इतना सर्व भी ‘अस्य' इस पुरुषका ‘महिमा' आपना सामर्थ्य विशेष है; न कि तिसका वास्तव्य स्वरूप है. क्योंकि, वास्तव स्वरूप तो पुरुष है, अतः (महिनोपि) इससे महिमासेभी 'जायान् ' अतिशय करके अधिक है, येह दोनों स्पष्ट करते हैं; 'अस्य ' इस पुरुषके ‘विश्वा भूतानि' त्रिकाल में वर्तनेवाले सर्व प्राणी ‘पाद' चौथे हिस्से प्रमाण है 'अस्य' इस पुरुषके त्रिपात' शेष तीन हिस्से-भाग ‘अमृतं' विनाशरहित हुआ थका दिवि द्योतनात्मके स्वप्रकाशरूपमें व्यवतिष्ठित है. इतिशेषः॥३॥ जो यह त्रिपात् पुरुषः संसारके स्पर्शरहित ब्रह्मस्वरूप है, और जो यह 'ऊर्ध्वः उदैत्' इस अज्ञानकार्य संसारसे बाहिरभूत है, इहांके गुणदोनोंकरी अस्पृष्ट है, उत्कर्षताकरके रहा हुआ है, 'तस्यास्य' तिस इस का सोयं पादलेशः' सो यह पादलेश ‘इह ' इहां मायामें फेर होता भवा. सटिसंहार करके पुनः २ वारंवार आता है, 'ततः' तदपीछे माया Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003207
Book TitleTattvanirnaya Prasada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAmarchand P Parmar
Publication Year1902
Total Pages878
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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