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________________ सतमस्तम्भः। १९३ कः । अद्धा ।वेद । कः । इह । प्रोवोचत्। कुतः।आऽजाता।कुतः। इयम्। विऽसृष्टिः। अर्वाक् । देवाः । अस्य । विऽसर्जनेन । अर्थ । कः । वेद । यतः। आऽबभूव ॥६॥ इयं विसृष्टिर्यत आबभूव यदि वा दधे यदि वा न । यो अस्याध्यक्षः परमे व्योमन्त्सो अङ्गवेद यदि वानवेद॥७॥ __ इयम् । विऽसृष्टिः । यतः । आऽबभूव । यदि । वा । दधे । यदि । वा। न। यः । अस्य । अधिऽअक्षः । परमे । विऽओमन् । सः । अङ्ग । वेद । यदि।वा।न। वेद ॥७॥ ऋ० अ०८ अ०७व० १७ मं० १० अ० ११ सू० १२९ भाषार्थः--'तपसस्तन्महिनाजायतैकमइत्यादि 'करके आगे सृष्टि प्रतिपादन करेंगे, अब तिसकी पहिली अवस्था, (निरस्त) दूर करी है. समस्त प्रपंचरूप, जो प्रलयअवस्था, सो निरूपण करिये है. (तदानीम्) प्रलयदशामें अवस्थित रहा हुआ, जो इस जगत्का मूलकारण, सो (नासदासीत् ) असत, शशेके शृंगवत् निरुपाख्य नही था, क्योंकि तैसें कारणसें इस सत्रूप जगत्की उत्पत्ति कैसे संभवे ? तथा (नोसत्) सत् नही (आसीत् ) था, आत्मवत् सत्व कहनकरके भी निर्वाच्य था; यद्यपि सत् असत् आत्मक प्रत्येक विलक्षण है, तोभी भावाभावोंको साथ रहनेकाभी संभव नहीं है, तो तिनका तादात्म्य कहांसे होवे ? इसवास्ते उभय विलक्षण निर्वाच्यही था, यह तात्पर्यार्थ है. ननु, ऐसा वितर्कमें पद है, 'नोसदिति' इसकरके पारमार्थिक सत्त्वका निषेध है तो, आत्माकों भी अनिर्वाच्यत्वका प्रसंग होवेगा, जेकर कहोगे ऐसें नहीं, क्यों कि, 'आनीदवातम्' इसपदकरके तिसका सत्त्व आगे कहेंगे, इसवास्ते परिशेषसें मायाकाही सत्त्व इहां निषेध करते हैं. ऐसें मान्याभी ‘तदानीं' इस विशेषणकों आनर्थक्यपणा होवेगा; क्योंकि, व्यवहारदशामें तिस मायाको पारमार्थिकसत्त्व होनेके अभावसें. अथ जेकर व्यवहारिक सत्त्वकों तिस अवसरमेंभी २५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003207
Book TitleTattvanirnaya Prasada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAmarchand P Parmar
Publication Year1902
Total Pages878
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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