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पञ्चमस्तम्भः।
१७१ ईहापोहाभावस्तदभावे संभवाभावः ॥ १२॥ तदभावेस्ति न चिन्ता चिन्ताभावे क्रियागुणो नाऽस्ति ॥
कर्तृत्वमनुपपन्नं क्रियागुणानामसंभवतः ॥ १३॥ व्याख्या-तहां अलिंगवाले अव्यक्तसें व्यक्तस्वरूपकी तो कदाचित् उत्पत्ति होसक्ती है, दधिवत् ; परंतु यदि भूतही नही है तो, सोमादिकोंकाभी संभव नहीं है. क्योंकि, जेकर शरीरके मूलकारणभूतही नही है तो, सोमादिकोंके शरीरका संभव कैसे होगा ? । जब महाभूतोंका समूहही नहीं है तो, तिनके पशुपति (महादेव,) दिनपति, वत्स, मांडव्य, पितामह, ब्रह्मा, विष्णुके शरीरकाभी संभव नही होसक्ता है. । और देहके अभाव हुए बुद्धि, और मनके भेदोंका संभव नहीं है. क्योंकि, देहके विना मन और बुद्धिका संभव किसीप्रमाणसेंभी सिद्ध नही होसक्ता है,
और बुद्धि मनके अभावसे ईहाअपोहका अभाव है, ईहानाम विचार करणेका है, और अपोहानाम निश्चय करणेके सन्मुख होनेका है, बुद्धिमनके अभावसे इन दोनोंका संभव नही है.? इहाअपोहाके अभावसें चिंता नही हो सक्ती है, और चिंताके अभावसे क्रियागुण नहीं है, क्रियागुणके संभव न होनेसें कर्त्तापणाकी अनुपपत्ति है; जब क्रियागुण नही है, तब कर्त्तापणा किसीप्रमाणसेंभी सिद्ध नही होता है.॥ १०।११।१२।१३ ॥
तेन कृतं यदि च जगत् स कृतः केनाकृतोथ बुद्धिर्वः ॥ विज्ञेयः सत्येवं भवप्रपंचोऽपि तहदिह ॥ १४॥ व्याख्या--जेकर यह जगत् तिस ईश्वरने रचा है तो, वो ईश्वर किसने रचा है ? अथ जेकर तुमारी ऐसी बुद्धि होवे कि, ईश्वर तो किसीनेभी नही रचा है तो, ऐसेही जगत्का प्रपंचभी जानना चाहिए, अर्थात् जगत्भी ईश्वरकीतरें किसीने नही रचा है, किंतु प्रवाहसे अनादि है; ऐसे क्यों नही मानते हैं ? ॥ १४ ॥
अभ्युपगम्येदानीं जगतः सृष्टिं वदामहे नास्ति । पुरुषार्थः कृतकृत्यो न करोत्याप्तो जगत्कलुषम् ॥ १५॥
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