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________________ पञ्चमस्तम्भः प्रायः कारणवालेही सर्व विकल्प जान लेने. तथा जब जगत्ही नही था, तब जगतका कर्ता कहां रहताथा ? जेकर कहे सर्व जगें व्यापक था, तो, हे प्यारे ! जब कोइ जगाही नही थी, तो, व्यापक किसमें था? क्योंकि, विना आकाशके कोइभी जड चैतन्य वस्तु नही रह सक्ती है, यह प्रमाणसिद्ध है; और अप्रमाणिक कथनकों सत्य करके मानना, यह बुद्धिमानोंका काम नहीं है. जेकर असत्कारण, और असत्क के माननेसें जगदुत्पत्ति होवे, तब तो खरशृंगसेंभी पुरुष उत्पन्न होना चाहिए; सोही ग्रंथकार दिखावे है. जिसवास्ते असत् जो है, तिसकी उत्पत्ति तीनोही कालमें निश्चित नही होसक्ती है, इस कथनमें खरशृंगका दृष्टांत है, जैसे खरशृंग स्वरूपसें असत् है, तिस्से कोइभी कार्य उत्पन्न नही होसक्ता है, तैसेंही असत्कारण और असत्कर्त्तासें भी कोई कार्य उत्पन्न नही होसक्ता है; तिसकारणसें प्रवाह अपेक्षा अनादि स्वभावसिद्ध लोक है, नतु ईश्वरादिरचित.॥ मूर्तामूर्त जो द्रव्य है, परमाणु और परमाणुजन्य जो कार्यद्रव्य है, सर्व मूर्त्तद्रव्य है; जिसमें रूप, रस, गंध, स्पर्श होवे, तिसकों मृर्तद्रव्य कहते हैं; और आत्मा आकाशादि अमूर्त द्रव्य है. ये दोनो स्वरूप, द्रव्योंके सर्वथा कदापि विनाश नहीं होते हैं, और न अन्यत्व, अर्थात् मूर्तद्रव्य कदापि अमूर्तभावकों प्राप्त नही होवे है, और न अमूर्त कदापि मूर्त भावकों प्राप्त होवे है; किंतु, यह जो जगत्की उत्पत्ति विनाश है, सो पर्यायरूपकरके जैन मानते हैं, न तु द्रव्यरूपकरके. । काश्यपदक्षादिकोंके, आदिशब्दसें समलब्रह्महिरण्यगर्भब्रह्मादिके अभिप्रायसें जेकर जगत्की उत्पत्ति होवे, तब लोकके अभावसे तिनका काश्यप, दक्ष, हिरण्यगर्भादिकोंका अस्तिपणा, और रहना कहां था ? कहांहीभी नहीं था.॥ १॥२॥३॥४॥५॥ सर्व धराम्बरायं याति विनाशं यदा तदा लोकः ॥ किं भवति बुद्धिरव्यक्तमाहितं तस्य किं रूपम् ॥६॥ २२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003207
Book TitleTattvanirnaya Prasada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAmarchand P Parmar
Publication Year1902
Total Pages878
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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