________________
१६८
तत्त्वनिर्णयप्रासादयह नित्यका लक्षण है. जब कारण अपने स्वरूपसें न क्षरेगा, अर्थात् नाश नही होवेगा, और नवीन स्वरूप धारण नहीं करेगा, तब कार्यको कैसे उत्पन्न करेगा ? क्योंकि, मृत्पिड, स्थास, शिवक, कोश, कशूलादि पूर्वरूपोंको त्यागकेही उत्तर रूपोंको प्राप्त होता है; जेकर कहोगे कारण अनित्य है, तब तो सोभी कारण अन्यकारणसें उत्पन्न होना चाहिए, सोभी कारण अन्यकारणसें ऐसे माने अनवस्थादूषण होवे है; इसवास्ते सत् और नित्यकारणसे जगदुत्पत्ति कैसे हो सक्तीहै ? अपितु कदापि नही हो सकती है. __ और एक यह बडा दूषण जगदुत्पत्ति माननेमें है कि, जब जगत्ही नही था, तब जगत्की उत्पत्तिका कारण और जगत्कर्ता ईश्वर, ये दोनों किस स्थानमें रहते थे? क्योंकि कोईभी स्थान रहनेवाला नही था. जेकर कहोगे आकाशमें रहते थे, तो, यह कहनाभी मिथ्या है; क्योंकि, सांख्यशास्त्रमें, तथा वेदोंमें, आकाशकोभी उत्पत्तिवाला माना है, जो कि आगे लिखेंगे. जब आकाशही नही उत्पन्न हुआ था, तब जगत्का सत् नित्यकारण, और कर्त्ता ये दोनों कहां रहते थे ?
एक अन्यबात यह है कि, आकाशनाम शून्य पोलाडका है, जब शून्य पोलाडरूप आकाश नहीं था तो, क्या इहां कोइ निग्गर घनरूप था ? क्योंकि, सप्रतिपक्ष जो वस्तु है, तिनमें जहां एक होवेगा, तहां दूसरेका अवश्य अभाव होवेगा, अंधकारउद्योतवत्. जब धनरूप था, सो परमाणु आदि चारों महाभूतोंके सिवाय अन्य कोई वस्तु सिद्ध नही होसक्ती है, और परमाणु आदि चार महाभूत आकाशविना कदापि किसी जगे नही रहसक्ते हैं, इसवास्ते सत्कारणसें वा नित्यानित्यकारणोंसें जगत्की उत्पत्ति जे मानते हैं, तिनके घटमें अज्ञान विजूंभितकेविना अन्य कोई कारण नहीं है.
तथा जगत्का जो कर्त्ता माना है, सो सत्स्वरूप है कि, असत्स्वरूप है ? जेकर सत्स्वरूप है तो, फेर नित्य है कि, अनित्य है ? इत्यादि
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org