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पञ्चमस्तम्भः।
१६३ कुंचित (वांका ) और फल वर्तुल (गोल), हे प्रियवर ! कहो स्वभावविना येह किसने बनाए (रचे) हैं ? ॥ १।२॥ “अक्षरवादिनचाहुः॥"
अक्षरात् क्षरितः कालस्तस्मायापक इष्यते॥
व्यापकादिप्रकृत्यन्तः सैव सृष्टिः प्रचक्ष्यते॥१॥ “अपरेप्याहुः ॥”
अक्षरांशस्ततो वायुस्तस्मात्तेजस्ततो जलम् ॥
जलात् प्रसूता पृथिवी भूतानामेषसंभवः ॥२॥ व्याख्या-अक्षरवादी कहते हैं-अक्षरसें क्षरका काल उत्पन्न हुआ, तिस हेतुसे कालको व्यापक माना है, व्यापकादि प्रकृतिपर्यंत सोही सृष्टि कहते हैं.
अपर ऐसे कहते हैं-प्रथम अक्षरांश, तिससे वायु उत्पन्न हुआ, तिस वायुसे तेज( अग्नि )उत्पन्न हुआ, अग्निसें जल उत्पन्न हुआ, और जलसें पृथिवी उत्पन्न हुइ, इन भूतोंका ऐसें संभव हुआ है ॥ १॥२॥ “अंडवादिनचाहुः॥”
नारायणः परोव्यक्तादण्डमव्यक्तसंभवम् ॥ अण्डस्यान्तस्त्वमीभेदाःसप्तद्वीपा च मेदिनी ॥१॥ गर्भोदकं समुद्राश्च जरायुश्चापि पर्वताः ॥ तस्मिन्नण्डेत्वमी लोकाः सप्त सप्त प्रतिष्ठिताः ॥२॥ तस्मिन्नण्डे स भगवानुषित्वा परिवत्सरम् ॥ स्वयमेवात्मनो ध्यानात्तदण्डमकरोद् द्विधा ॥३॥
तान्यां स शकलान्यां च दिवं भूमिं च निर्ममे-इत्यादिव्याख्या-अंडवादी कहते हैं-नारायण भगवान् परमअव्यक्तसे, व्यक्त अंडा उत्पन्न हुआ, और तिस अंडेके अंदर यह भेद जो आगे कहते हैं, सातद्वीपवाली पृथिवी, गोंदक वर्षणेवाला जल, समुद्र, जरायु मनुष्यादि, और पर्वत, तिस अंडेविषे ये लोक सात २ अर्थात् चौदह भुवन प्रति
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