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तत्त्वनिर्णयप्रासाद'क्षराक्षराभ्यामुत्कृष्टः' ऐसा पुरुषोत्तम जिसका मूल है, अधइति तिससे अर्वाचीन कार्यरूप उपाधियां हिरण्यगर्भादि ग्रहण करीए है, वे सर्व शाखाकीतरे शाखा हैं जिसकी, ऐसा पीपलका वृक्ष प्रवाहरूपकरके आविच्छेद होनेसें अव्यय है, “ऊर्ध्वमूलोऽर्वाक्शाख एषोऽश्वत्थः सनातन इत्यादिश्रुति वचनात्” और, 'छंदासि यस्य पर्णानि' वेद जिसके पत्र हैं, धर्माधर्म प्रतिपादनद्वार करके छाया समान कर्मफलकरके संयुक्त होनेकरके संसाररूप वृक्षकों सर्वजीवोंके आश्रयभूत होनेसें पत्रोंसमान वेद है, जो ऐसे पीपलके वृक्षको जानता है, सोइ वेदोंके अर्थोंको जानता है ॥ ५१ ॥ ५२ ॥ ५३॥
पूर्वोक्त वर्णन प्रायः वेदानुसार किया, अब पुराणानुसार वर्णन करते हैं. तिस संसारके एकार्णवीभूत हुआं, स्थावरजंगमके नष्ट हुए, अमर ( देवतायों) के नष्ट हुए, उरगराक्षसोंके नष्ट हुए, केवल गव्हरीभूत महाभूतकरके रहित, ऐसे जलमें, अर्थात् जलके ऊपर, अचिंत्य आत्मावाला विभु, विष्णु सूताहुआ तप तपता है; तहां तिस सूतेहुए विष्णुकी नाभिसें तत्कालके उदय हुए सूर्य मंडलके समान मनोहर सुवर्णकी कर्णिवाला पद्म (कमल) निकला, तिस कमलमें भगवान् ब्रह्मा, कमंडलु यज्ञोपवीत मृगचर्मासनादि वस्तुयोसहित उत्पन्न हुआ, तिस ब्रह्माने जगत्की मातायें पैदा करी; सोइ दिखाते हैं. स्वर्गवासिदेवतायोंकी माता अदिति १, असुरोंकी माता दिति २, मनुष्योंकी मनु ३, पक्षीयोंकी विनता ४, सोकी कद्रू ५, नागजातियोंकी माता सुलसा ६, चौपायोंकी सुरभि७, और सर्वबीजांकी माता इला (पृथिवी) ८॥ तिनोंसें-पूर्वोक्त मातायोंसें उत्पन्न हुई प्रजा विस्तारको प्राप्त हुई, कितनेक ऐसें मानते हैं और कितनेक ऐसे कहते हैं कि, प्रथम सर्वप्रजा वर्णरहित थी, पीछे तिसने-ब्रह्माने वर्णादिकरके सृष्टि रची ॥ ५४ ॥ ५५ ॥ ५६ ॥ ५७ ॥ ५८ ॥ ५९ ॥ ६० ॥ "कालवादिनश्चाहुः॥” कालः सृजति भूतानि कालः संहरते प्रजा:॥
कालः सुप्तेषुजागर्ति कालोहि दुरतिक्रमः॥६१॥ - व्याख्या-कालवादी कहते हैं कि-कालही जीवोंको उत्पन्न करता है, और कालही प्रजाका संहार करता है, जीवोंके सूतेहुए रक्षा करणरूप
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