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________________ पञ्चमस्तम्भः। " पुराणे चान्यथा॥” तस्मिन्नेकार्णवीभते नष्टे स्थावरजङ्गमे । नष्टामरनरे चैव प्रनष्टोरगराक्षसे ॥५४॥ केवलं गहरीभूते महाभूतविवर्जिते॥ अचिन्त्यात्मा विभुस्तत्र शयानस्तप्यतेतपः॥५५॥ तत्र तस्य शयानस्य नाभौ पद्मं विनिर्गतम् ॥ तरुणरविमण्डलनिभं हृद्यं काञ्चनकर्णिकम्॥५६॥ तस्मिंश्च पद्मे भगवान् दण्डकमण्डलुयज्ञोपवीतमृगचर्मवस्तुसंयुक्तो ब्रह्मा तत्रोत्पन्नस्तेन जगन्मातरः सृष्टाः ॥५७॥ अदितिः सुरसंघानां दितिरसुराणां मनुर्मनुष्याणाम्॥ विनता विहङ्गानां माता विश्वप्रकाराणाम् ॥ ५८॥ कद्रूः सरीसृपाण | सुलसा माता तुनागजातीनाम्॥ सुराभश्चतुः पदानामिला पुनः सर्वबीजानाम् ॥ ५९॥ प्रभवस्तासां विस्तरमुपागतः केचिदेवमिच्छन्ति॥ केचिद्वदन्त्यवर्ण सृष्टं वर्णादिभिस्तेन ॥६० ॥ व्याख्या-वैष्णवमतवाले कहते हैं कि-जलमेंभी विष्णु है, स्थलमें भी विष्णु है, और आकाशमेंभी जो कुछ है, सो विष्णुकीही माला-पंक्ति है, सर्वलोक विष्णुहीकी माला-पंक्तिकरके आकुल अर्थात् भराहुआ है इसवास्ते इस जगत्में ऐसी कोइभी वस्तु नहीं है, जो कि, विष्णुका रूप नहीं है. पांच वस्तुकरके सर्वतः सर्वजगे पाणय (हाथ ) हैं, और सर्वजगे पग हैं जिसके, और सर्वत्र जिसके आंखें, शिर और मुख हैं, और जो सर्वजगे श्रवणेंद्रियोंकरके युक्त है, और जो सर्वलोकविषे सर्ववस्तुयोंको व्याप्य होके रहता है, अर्थात् सर्वओरसे प्राणियोंकी वृत्तियोंकरके हस्तादिउपाधियोंकरके सर्वव्यवहारका स्थान होके रहता है. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003207
Book TitleTattvanirnaya Prasada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAmarchand P Parmar
Publication Year1902
Total Pages878
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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