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चतुर्थस्तम्भः। एकात अनित्य, इत्यादि जानते है, परंतु सर्वज्ञ परमेश्वर तो, सर्व पदाऑकों त्रिपदीरूपसे जानता है, अन्यथा सर्वज्ञत्वहानिप्रसंगः-तथा जिसका चरित अनन्यसदृश और अचिंत्य, अर्थात् किसीभी दूषणकरके कलंकांकित नहीं, ऐसा होवे, सो पूर्वोक्त विशेषणविशिष्ट देव, नामकरके ब्रह्मा हो, वा विष्णु हो, वा उपदेशद्वारा वर (प्रधान) ज्ञान दर्शन चारित्रका देनेवाला हो, वा शं( सुख ) करनेवाला शंकर हो, वा हर (महादेव) हो, तिसको ही मैं सच्चे भावसें अपना देव (परमेश्वर) करके अंगीकार करता हूं ॥ ३७॥ अब पक्षपात न होने में हेतु कहते हैं. पक्षपातो न मे वीरे न द्वेषः कपिलादिषु ॥
युक्तिमद्वचनं यस्य तस्य कार्यः परिग्रहः ॥३८॥ व्याख्या-मेरा कुछ श्रीमहावीरविषे पक्षपात नहीं है कि, जो कुछ श्रीमहावीरजीने कहा है, सोइ मैंने मानना है, अन्यका कहा नहीं; और कपिलादिमताधिपोंमें द्वेष नहीं है कि, कपिलादिकोंका कहना नहीं मानना; किंतु जिसका वचन शास्त्रयुक्तिमत, अर्थात् युक्तिसें विरुद्ध नहीं है, तिसका ही वचन ग्रहण करनेका मेरा निश्चय है ॥ ३८॥ __ अब जगत्में कपिल, ब्रह्मा, विष्णु, महादेव, जैमिनी, गौतम, कणाद, व्यास, पंतजाल, आदि, और ऋषभादि चौवीस तीर्थंकर, और गौतमबुद्धादि अनेक धर्मतीर्थके कर्ता हुए हैं; इसवास्ते इनमेसें कोइएक तो सत्यवक्ता अवश्य होना चाहिए. सोइ ग्रंथकार कहते हैं. अवश्यमेषां कतमोपि सर्ववित् जगद्वितैकान्तविशालशासनः॥ स एव मृग्यो मतिसूक्ष्मचक्षुषा विशेषमुक्तैः किमनर्थपण्डितैः ॥३९॥ _ व्याख्या-इन पूर्वोक्त धर्मतीर्थके प्रवर्तकोंमेंसें कोइभी वक्ता, जगत्के एकांत हितकारी विशाल आगमवाला, अर्थात् जगत्के एकांत हितकारी प्रौढ अतिसुंदर आगमके कथन करनेवाला सर्वज्ञ होना चाहिए, जो ऐसा होवे, तिसकाही अन्वेषण बुद्धिरूप सूक्ष्मचक्षुकरके बुद्धिमानोंको
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