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तत्त्वनिर्णयप्रासाद. यदा रागद्वेषादसुरसुररत्नापहरणे
कृतं मायावित्वं भुवनहरणाशक्तिमतिना ।। तदा पूज्यो वन्द्यो हरिरपरिमुक्तो ध्रुवतया
विनिर्मुक्तं वीरं न नमति जनो मोहबहुलः ॥३६॥ व्याख्या--जिस अवसरमें रागद्वेषसें सुर असुरोंके समक्ष रत्न हरणेमें तीन भवनके हरनेकी शक्तिवाले विष्णु हरिने मायाविपणा करायह कथा पुराणोंमें प्रसिद्ध है कि, जिसतरे मणि चोरी गई, जैसे बलभद्रजीके सिर लगाई, और जैसी माया हरिने करी, इत्यादि-तदा तिस अवसरमें निश्चयकरके अष्टादश दूषणोंकरके अपरिमुक्त (सहित )को पूज्य और वंद्य मानके जन (लोक) पूजता है, और नमस्कार करता है, परं सर्वदूषणोंसें विनिर्मुक्त (रहित) श्रीवीरभगवान्कों नमस्कार नहीं करता है तो, फेर तिसके मोह अज्ञान बहुत नहीं तो, अन्य क्या है ? अर्थात् मोहबहुल-बहुत मोह अज्ञानके वश होनेसे सत्यासत्य नहीं जानसक्ता है, इसीवास्ते दूषणरहितकों छोडके दूषणसहितको मानता है, नमन करता है, और पूजता है. ॥३६॥
अब आचार्य श्रीहरिभद्रसूरिजी अपने आपको पक्षपातसे रहित होना बतलाते हैं.
त्यक्तः स्वार्थः परहितरतः सर्वदा सर्वरूपं __ सर्वाकारं विविधमसमं यो विजानाति विश्वम् ॥ ब्रह्मा विष्णुर्भवतु वरदः शंकरो वा हरो वा
__ यस्याचिन्त्यं चरितमसमं भावतस्तं प्रपद्ये ॥३७॥ व्याख्या-जिसने स्वार्थका तो त्याग करा है; और जो परहितमें रत है; तथा जो सर्वदा (सर्वकाल) सर्वरूप जडचैतन्यरूप, सर्वाकार परिमंडल, वृत्त, त्र्यंश, चतुरस्र, आयतनसंस्थानाकार, विविध प्रकारे उत्पाद, व्यय, ध्रौव्यरूप विश्व-जगत्को, असम-अनन्यसदृश जानता है, अर्थात् जो अन्योंकेसमान नहीं जानता है. क्यों कि, अन्य तो एकांतनित्य, वा
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