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चतुर्थस्तम्भः ।
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वाले घोडेका रूप बनाकर उस घोडीरूप संज्ञाके पास पहुंचे; तब संज्ञा मनसे क्षोभको प्राप्त होकर भयसे विव्हल होती भई, और उस सूर्यसेही धारण किये हुए वीर्यको परपुरुषकी शंका करके अपनी नासिकाके दोनों छिद्रोंके द्वारा बाहर त्यागती भई, उसी वीर्यसे अश्विनीकुमार उत्पन्न होते भये. अश्वसे उत्पन्न होनेसे उनको दस्रौ कहते हैं, और नासिकाके द्वारा होनेसे नासत्या ऐसा भी कहते हैं.
अनि सर्वभक्षी ऐसे हुआ - पहिले कोइक ऋषि अपनी कुटीमें वैश्वानरको बडी भक्तिसे आहुतियोंकरी पूजता था, सो एकदा अग्निको कहलगा कि, तूं मेरी भार्याकी रखवाली करी, ऐसे कहकर ऋषि बाहिर गया. तब पीछे कामांध होके किसी ऋषिने अग्निके प्रत्यक्षही ऋषिपत्नीके साथ भोग करा, क्षणांतरमें सो ऋषि आया, तिसने इंगिताकारकरके अ पनी भार्याको परपुरुषने भोगी जानके अग्निको पूछा कि, यहां कौन आयाथा ? तब दोनोंमेंसें किसीनेभी उत्तर न दिया, परंतु तिस ऋषिने अपने ज्ञानकरके तिस उपपतिको जान लिया, तब रक्षणेयोग्यकी रक्षा न करनेसें और पूछेका उत्तर न देनेसें ऋषिने अग्निके उपर क्रोध करा, और शाप दिया कि, तूं सर्वभक्षण करनेवाला होवेगा. तब अग्नि अशुचि आदि सर्व भक्षण करने लगा, और जो कुछ गंदकी आदि अग्नि भक्षण करे सो सर्व देवताओं को प्राप्त होने लगा. “ अग्निमुखा वै देवा " इतिश्रुतिवचनप्रामाण्यात्, तब अशुचि रस खानेसें उद्विग्न हुए देवते, अपने ज्ञानसें शापका व्यतिकर जानकर तिस ऋषिकों प्रसन्न करनेलगे, परंतु ऋषिने माना नहीं. अंतमें देवताओंके अतिआग्रहसें अग्निको सप्तजिव्हावाला कर दिया, तबसें अग्निका नाम सप्तार्चि प्रसिद्ध हुआ. तिनमें दो जिव्हासें आहुतिं भोगने लगा, वह देवताओंको पहुंचने लगी, और शेष पांच जिव्हासें सर्व भक्षी स्थापन किया.
चंद्रमाकों ऐसे कलंक लगा - चंद्रमा बृहस्पतिके पास पढताथा, तिसने बृहस्पतिकी भार्याकेसाथ भोग करा, सो वृत्तांत बृहस्पतिने जाना, तब तिसने चंद्रमाको शाप दिया कि, हे गुरुपत्नीउपभुंजक ! तूं सदा कलंकवान् हो.
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