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________________ १३६ तत्त्वनिर्णयप्रासाद प्रकार करके वह यम, शिवजीके प्रभावसे लोकपाल होजाताभया, फिर अधर्मो का भी जाननेवाला होकर, सब पितरोंका पति होता भया. इसके पीछे सूर्यदेवता, प्रथम कियेहुए संज्ञाके कर्मको जानकर, उसके पिता, त्वष्टाके पास गये, और क्रोध होकर उससे बोले कि, तुम्हारी पुत्रीने मेरी विनाआज्ञा ऐसा कर्म किया. यह सुनकर हे षियो ! उस त्वष्टाने सूर्यको समझाकर कहा कि, हे भगवन् ! यह मेरी पुत्री आपके तेजको न सहकर घोडीका रूप धारण करके मेरे समीप आईथी, सो हे सूर्यदेव ! मैंने उससे यह कहकर उसको लौटादिया कि, सूर्यकी आज्ञा लिये विना जो तू मेरे घर आई है, इसहेतुसे तू मेरे घरमें प्रवेश करनेको योग्य नहीं है. इस मेरे वचनको सुनकर वह मरुस्थल देशमें जाकर घोडीके रूपको धारण करके पृथ्वीमें विचरती है, इस हेतुसे आप प्रसन्न होकर मेरेऊपर दया करो. हे दिवाकरजी ! मैं आपके तेजको यंत्रमें करके पृथक् करढूंगा, और आपके रूपको मनुष्योंका आनंद करनेवालाभी कर दूंगा. तब सूर्यने कहा, ऐसाही करो. तब उस त्वष्टाने सूर्यके तेजको यं करके सूर्य से पृथक् कर दिया, फिर उसी पृथक् किये हुए सूर्यके तेजसें, विष्णुका चक्र, शिवजीका त्रिशूल, इंद्रका वज्र और अन्य २ देवताओंके अनेक शस्त्रोंको बनाया. इसके अनंतर दैत्यदानवोंके नाश कर्त्ता संपूर्ण मूर्तिसे रहित सूर्यको सहस्र किरणवाले विना पैरके सुंदरमुखमात्रही रूपको त्वष्टाने ऐसा बनाया कि, फिर उससूर्य के पैरोंके रूप देखनेकोभी त्वष्टा समर्थ नहीं हुआ, तभी से सूर्यकी प्रतिमा में कोई उनके पैरोंकी मूर्ति नही बनवाता है और सेवा मूर्खता से उनके पैरोंकी मूर्ति बनावता है वह पापियोंकी महानिंदित गतिको प्राप्त होकर इस संसारके कठिण दुःखोंको भोगता हुआ कुष्ठरोगको प्राप्त होता है, इस हेतुसे धर्मकामादिकी इच्छाका करनेवाला मनुष्य किसी मंदिर वा स्थानमें किसी स्थानपरभी सूर्यकी मूर्ति में पैर न बनवावे. इसके उपरांत सूर्य देवता, उसी मुखकेही रूपसे कामदेवले पीडित होकर पृथ्वीलोक में जाकर उस संज्ञाकी इच्छा करतेभये, और बडे तेज For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.003207
Book TitleTattvanirnaya Prasada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAmarchand P Parmar
Publication Year1902
Total Pages878
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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