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________________ तृतीयस्तम्भः। ११७ अथ स्तुतिकार नामके पक्षपातसें रहित होकर, गुणविशिष्ट भगवंतकों नमस्कार करते हैं. यत्र तत्र समये यथा तथा योऽसि सोस्यभिधया यया तया॥ वीतदोषकलुषः स चेद्भवानेक एव भगवन्नमोऽस्तुते ॥३१॥ व्याख्या-( यत्र तत्र समये) जिसतिस मतके शास्त्रमें ( यथातथा ) जिस तिस प्रकारकरके (यया तया अभिधया) जिस तिस नामकरके ( यः) जो तूं (आसि) है (सः) सोही (असि) तूं है, परं (चेत्) यदि जेकर (वीतदोषकलुषः) दूर होगए हैं द्वेष राग मोह मलिनतादि दूषण, तो, (भवान्-एक-एव ) सर्व शास्त्रोंमें तूं जिस नामसें प्रसिद्ध है, सो सर्व जगें तूं एकही है, इसवास्ते हे भगवन् ! (ते) तेरेतांइ (नमः) नमस्कार (अस्तु) होवे ॥ ३१॥ अथ स्तुतिकार स्तुतिकी समाप्तिमें स्तुतिका स्वरूप कहते हैं. इदं श्रद्धामात्रं तदथ परनिन्दा मृदुधियो विगाहन्तां हन्त प्रकृतिपरवादव्यसनिनः॥ अरक्तहिष्टानां जिनवरपरीक्षाक्षमधिया ___ मयंतत्त्वालोकः स्तुतिमयमुपाधि विधृतवान् ॥३२॥ व्याख्या-(मृदुधियः) मृदु कोमल विशेषबोधरहित जिनकी कोमल बुद्धि है, वे पुरुष तो (इदम् ) इस स्तोत्रकों (श्रद्धामात्रं ) श्रद्धामात्र, अर्थात् जिनमतकी हमकों श्रद्धा है, इसवास्ते हम इसको सत्य करकेही मानेंगे, ऐसे जन तो इस स्तोत्रकों श्रद्धामात्र (विगाहन्तां) अवगाहन करो-मानो, (हन्त) इति कोमलामंत्रणे (तत्-अथ) अथ सोही स्तोत्र (प्रकृतिपरवादव्यसनिनः) स्वभावही जिनोंका परके कथनमें वाद करनेका है, अर्थात् अपने माने देव और तिनके कथनमें जिनको आग्रह है कि, हमने तो यही मानना है, अन्य नहीं, ऐसे व्यसनी पुरुष इस स्तोत्रकों (परनिन्दां) परनिंदारूप अवगाहन करो; स्तुतिकारने परदेवोंकी निंदारूप यह स्तोत्र रचा है, ऐसें मानो, अपने माननेका कदाग्रह होनेसें, परंत हे जिनवर ! (परीक्षाक्षमधियाम्) परीक्षा करने में समर्थ बुद्धिवाले Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003207
Book TitleTattvanirnaya Prasada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAmarchand P Parmar
Publication Year1902
Total Pages878
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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