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________________ तत्त्वनिर्णप्रासादसत्योपदेष्टा नहीं मानना, ऐसी श्रद्धा, मनकी दृढता करकेही, ( त्वयि ) तेरेविषे हमारा (पक्षपातः) पक्षपात (न) नहीं है, और (द्वेषमात्रात् ) द्वेषमात्रसें (परेषु) परमतके देव हरिहरब्रह्मादिकोंमें (अरुचिः) अरुचि -अप्रीति (न) नहीं है, परंतु (यथावदाप्तत्वपरीक्षया-तु) यथावत् आप्तपणेकी परीक्षा करकेही, हे वीर ! वर्द्धमान ! हम (त्वां-एव ) तुजही (प्रभुम्) प्रभुकों (आश्रिताः स्मः) आश्रित हुए हैं. आप्तत्वकी परीक्षा आप्तके कथनसें और आतके चरितसे सिद्ध होती है, सो हमने तेरे कथनकी परीक्षा करी है, परंतु तेरे वचन हमने प्रमाणबाधित वा पूर्वापर विरोधि नहीं देखे हैं, और तेरा चरित देखा, सोभी आप्तत्वके योग्यही देखा है, और तेरी प्रतिमाद्वारा तेरी मुद्राभी निर्दोष सिद्ध होती है इन तीनों परीक्षायोंके करनेसें तेरेमें निर्दोष आप्तपणा सिद्ध होता है, इस वास्ते हमने तेरेकों प्रभु माना है. और अन्यदेवोंमें ये तिनो शुद्ध निर्दोष परीक्षायों सिद्ध नहीं होती हैं, इसवास्ते तीन देवोंकों हम अपना प्रभु नहीं मानते हैं. नतु द्वेष वा अरुचिसें. “ यदवादिलोकतत्वनिर्णये श्रीहरभद्रसूरीपादैः । पक्षपातो न मे वीरे न द्वेषः कपिलादिषु। युक्तिमद्वचनं यस्य तस्य कार्यः परीग्रहः” इति ॥ २९॥ अथाग्रे स्तुतिकार भगवंतकी वाणीकी स्तुति करते हैं. तमः स्पृशामप्रतिभासभाजं भवन्तमप्याशु विविन्दते याः॥ महेम चन्द्रांशुशावदातास्तास्तर्कपुण्या जगदीशवाचः॥३०॥ व्याख्या-हे जगदीश ! भगवन् ! (याः) जे वाचायों तेरी वाणीयों (तमस्पृशाम् ) अज्ञानरूप अंधकारके स्पर्शनेवालोंके (अप्रतिभासमाजम्) अप्रतिभासभाज अर्थात् अज्ञानी जिसकों नहीं जानसक्ते हैं, ऐसे (भवन्तम्-आप) तुजकोंभी-तेरेकोभी (आशु) शीघ्र (विविन्दते) प्रगट करतीयां है-जनातीयां है (ताः) तिन (चन्द्राशुदृशावदाताः) चंद्रकी किरणोंकीतरें दृशा-ज्ञान करके अवदाता-श्वेत और (तर्कपुण्याः ) तर्क करके पवित्र सम्मत (वाचः) वाणीयांकों (महेम) हम पूजते हैं ॥ ३० ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003207
Book TitleTattvanirnaya Prasada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAmarchand P Parmar
Publication Year1902
Total Pages878
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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