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तृतीयस्तम्भः।
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मिथ्यात्व अज्ञानरूप पटलोंसें अंधे होनेसें; (तां) तिस (तव) तेरी (देशनाभूमिं ) देशनाभूमिकों (अहम् ) मैं ( उपाश्रये ) उपाश्रित करता हूँआश्रित होता हूं, जिससे मेराभी सर्वजीवोंके साथ वैरानुबंधरूप व्यसन छुट जावे. ॥ २४ ॥
अथस्तुतिकार परदेवोंका साम्राज्य वृथा सिद्ध करते हैं.
मदेन मानेन मनोभवेन क्रोधेन लोभेन च संमदेन ॥ पराजितानां प्रसभं सुराणां वृथैव साम्राज्यरुजा परेषाम् ॥ २५ ॥
व्याख्या - ( परेषाम् - सुराणाम् ) परदेवताओंका ब्रह्मा, विष्णु, महादेवादिकोंका ( साम्राज्यरुजा ) लोकपितामहपणा, जगत्कर्त्तापणा, हंसवाहन, कमलासन, यज्ञोपवीत, कमंडलु, चतुर्मुख, सावित्रीपति, विशिष्टादि दश पुत्रोंवाला, वेदोंका कहनेवाला, चार वर्णका उत्पन्न करनेवाला, वर शाप देने समर्थ, सतोगुणरूप, इत्यादि ब्रह्माजीका साम्राज्य - चतुर्भुज, शंख, चक्र, गदा, शारंग, धनुष, वनमालाका धारनेवाला, ईश्वर, लक्ष्मी, राधिका, रुक्मिणीआदिका पति, सोलां सहस्र गोपियोंके साथ क्रीडा करनी, अनेक रूपका करना, वत्रीस सहस्र राणियोंका स्वामी, त्रिखंडाधिप, वामन नरसिंह रामकृष्णादिका रूप धारना, कंस, वाली, रावणादिका वध करना, सहस्रों पुत्रोंका पिता, रजोगुणरूप, सृष्टिका पालनकर्ता, भक्तसाहायक, घटघटमें व्यापक होना, इत्यादि विष्णुका साम्राज्य और जगत्प्रलय करना, वृषभवाहन, पंचमुख, चंद्रमौलि, त्रिनेत्र, कैलासवासी, सर्व सें अधिक कामी, स्त्रीके अत्यंत स्नेहवाला, सदा स्त्री पार्वतीकों अर्द्धांगमें रखनेवाला, अत्यंत भोला, त्रिभुवनका ईश्वर इत्यादि शिवका साम्राज्य. इसीतरे सर्वलौकिक देवोंका साम्राज्य समज लेना. ऐसा पूर्वोक्त साम्राज्यरूप रोग परतीर्थनाथोंका ( वृथाएव ) वृथाही है. कैसे परतीर्थनाथका ? ( मदेन) अष्टप्रकार के मद ( मानेन ) अभिमान - अहंकार ( मनोभवेन ) काम ( क्रोधेन ) क्रोध शत्रुके मारणरूप वा शापदानरूप (लोभेन ) लोभ स्त्री, पुत्र, धन, धान्य, शस्त्र, स्थानादिग्रहणरूप, (च) शब्दसे मायाकपटादि और ( संमदेन ) हर्ष खुशी इनों करके ( प्रसभं ) यथा स्यात्तथा अर्थात् हठ करके अपने बडे सामर्थ्य करके ( पराजितानां ) जे पराजित
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