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________________ ११२ तत्वनिर्णयप्रासादअथ स्तुतिकार अज्ञानियोंके प्रतिबोध करने में अपनी असमर्थता कहते हैं. अनायविद्योपनिषन्निषष्णैर्विशंखलैश्चापलमाचरद्भिः ॥ · अमूढलक्ष्योपि पराक्रिये यत्त्वत्किंकरः किं करवाणि देव ॥२३॥ व्याख्या-अनादि अविद्या, अर्थात् मिथ्यात्व अज्ञानरूप उपनिषदहस्यमें तत्पर हुयोंने, और विशृंखलोने, अर्थात् विना लगाम स्वछंदाचारी प्रमाणिकपणारहितोंने, और चपलता अर्थात् वाग्जालकी चपलताके आचरण करतेहुयोंने, इन पूर्वोक्त विशेषणोंविशिष्ट महाअज्ञानिपुरुषोंने जेकर तेरे अमूढ लक्ष्यकेंाभी-जिसके उपदेशादि सर्व कर्म निष्फल न होवें तिसकों अमूढलक्ष्य कहते हैं, अर्थात् सर्वज्ञ ऐसे तेरे अमूढलक्ष्यकोंभी, जेकर पूर्वोक्त पुरुष खंडन करे-तिरस्कार करे, जैसे कोई जन्मांध सूर्यके प्रकाशकों पराकरण करे, न माने, तो तिसकों निर्मल नेत्रवाला पुरुष क्या करे? ऐसेही अज्ञानी तेरा तिरस्कार करे, तो हे देव! स्वस्वरूपमें क्रीडा करनेवाले सर्वज्ञ वीतराग! तेरा किंकर मैं हेमचंद्रसूरि, क्या करूं ? कुछभी तिनकेतांई नही कर सकता हूं, जैसें जन्मके अंधकों अंजनवैद्य कुछ नही कर सकता है. ॥ २३ ॥ अथ स्तुतिकार भगवंतकी देशना भूमिकी स्तुति करते हैं-- विमुक्तवैरव्यसनानुबंधाश्रयंति यां शाश्वतवैरिणोऽपि ॥ परैरगम्यां तव योगिनाथ तां देशनाभूमिमुपाश्रयेऽहम्॥२४॥ - व्याख्या-हे योगिनाथ! (यां) जिस तेरी देशनाभूमिकों (शाश्वतवै. रिण:-अपि) शाश्वतवैरीभी, अर्थात् जिनका जातिके स्वभावसेंही निरंतर वैरानुबंध चला आता है, जैसें बिल्लि मूषकका, श्वान बिल्लिका, वृक अ. जाका, इत्यादि, वेभी सर्व, (विमुक्तवैरव्यसनानुबंधाः) खजातिका शाश्वत वैर रूपव्यसनके अनुबंधसें विमुक्त रहित हुए थके (श्रयंति) आश्रित होते हैं. यह भगवंतका अतिशय है कि, शाश्वतवैरीभी भगवानकी देशनाभूमि समवसरणमें जब आते हैं, तब परस्पर वैर छोडके परममैत्रीभावसे एकत्र बैठते हैं; और जो (परैः) परवादीयोंने (अगम्यां) अगम्य है, अर्थात परवादी जिस देशनाभूमिका स्वरूप नही जान सक्ते हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003207
Book TitleTattvanirnaya Prasada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAmarchand P Parmar
Publication Year1902
Total Pages878
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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