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तत्वनिर्णयप्रासाद
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वाले हैं, और जे आगम हिंसादि, आदि शब्दसे मृषा, अदत्तादान, मैथुनादि पाप कर्म करने के उपदेशक हैं, वे आगम प्रमाण नही है. ॥ १० ॥ अथ भगवंतप्रणीत आगमके प्रमाण होने में हेतु कहते हैं. हितोपदेशात्सकलज्ञक्कतेर्मुमुक्षुसत्साधुपरिग्रहाच्च पूर्वापरार्थेप्यविरोधसिद्धेस्त्वदागमा एव सतां प्रमाणम् ॥११॥ व्याख्या - हे भगवन् जिनेंद्र ! ( त्वदागभाएव ) तेरे कथन करे हुए द्वादशांगरूप आगमही ( सतां ) सत्पुरुषांकों (प्रमाणम् ) प्रमाण है, किस हेतु (हितोपदेशात् ) एकांत हितकारी उपदेशके होनेसें और ( सकल ज्ञकः ) सर्वज्ञके कथन करे रचे हुए होनेसें, (च) और (मुमुक्षुसत्साधुपरिग्रहात् ) मोक्षकी इच्छावाले सत्साधुयोंके ग्रहण करनेसें, अर्थात् आचार्य उपाध्याय साधु जिनके प्रवर्त्तक होनेसें, (अपि) तथा ( पूर्वापरार्थे ) पूर्वापर कथन करे अर्थों में ( अविरोधसिद्धेः ) अविरोधकी सिद्धि सें. ॥११॥ अथ भगवत् के सत्योपदेशकों परवादी किसी प्रकारसेंभी निराकरण नही कर सक्ते हैं यह कथन करते हैं.
क्षिप्येत वान्यैः सदृशी क्रियेत वा तवाङ्गिपीठे लुठनं सुरेशितुः ॥ इदं यथावस्थितवस्तुदेशनं परैः कथंकारमपाकरिष्यते ॥ १२ ॥
व्याख्या - हे जिनेंद्र ! (तब ) तेरे (अङ्गिपीठे) चरण कमलोंमें, जो (सुरेशितुः ) इंद्रका ( लुठनं ) लुठना - लोटना था, चरणमें चौसठ इंद्रादि देवते सेवा करते थे, इत्यादि जो तेरे आगममें कथन है, तिसकों (अन्यैः) परवादी बौद्धादि (क्षिप्येत ) क्षेपन करें-खंडन करें; यथा जिनेंद्रके चरण कमलोंमें इंद्रादि देवते सेवा करते थे, यह कथन सत्य नही है, जिनेंद्र और इंद्रादि देवतायोंके परोक्ष होनेसें (वा) अथवा ( सदृशी क्रियेत ) सदृश करें, जैसें श्री वर्द्धमान जिनके चरणोंमें इंद्रादि लोटते थे-चरण कमलकी सेवा करते थे, ऐसेही श्री बुद्ध भगवान् शाक्यसिंह गौतमकेभी चरणों में इंद्रादि सेवा करते थे, ऐसें कहें; परंतु ( इदं ) यह जो ( यथावस्थितवस्तुदेशनं ) यथार्थ वस्तुके स्वरूपका कथन तेरे शासन में है, तिसकों (परैः) परवादी ( कथंकारम् ) किस प्रकार करके ( अपाकरिष्यते )
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