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तृतीयस्तम्भः। को अरिहंतका उपदेश कौन प्राप्त करता ? और साधु न होते तो जगत्वासीयांको मोक्षमार्ग पालन करके कौन दिखाता ? और मोक्षमार्गमें प्रवर्त्त हुए भव्य जनोंकों साहाय्य कौन करता ? इस वास्ते साधु शरणभूत है. | ३ |
चौथा शरण केवल ज्ञानीका कथन करा हुआ धर्म है; क्योंकि विना धर्मके पूर्वोक्त वस्तुयोंका अस्मदादिकांकों कौन बोध करता ? इस वास्ते सर्व शरणभूतोंसें अधिक शरण्यभूत, हे भगवन् ! तेरा शासन है । ४।
तथा हे जिनेंद्र ! तेस शासन पुण्य पवित्र है, सर्व दूषणोंसे मुक्त होनेसें, प्रमाण युक्ति शास्त्रसें,अविरोधि वचन होनेसें, तथा दृष्टसेंभी अविरोधि होनेसें, ऐसे शरण्य और पवित्र तेरे शासनके हुएभी, जो कोइ इसमें संशय करता है, वा विवाद करता है, सो पुरुष, अत्यंत स्वादु, तथ्य, स्वहितकारि, पथ्य भोजनमें संशय करनेवाला है, अर्थात् वो अत्यंतही मूर्ख है, जो ऐसी वस्तुमें संशय वा विवाद करता है || ९॥ अथ स्तुतिकार अन्य आगमोंके अप्रमाण होनेमें हेतु कहते हैं। हिंसाद्यसत्कर्मपथोपदेशादसर्वविन्मूलतया प्रवृत्तेः
नृशंसदुर्बुद्धिपरिग्रहाच्च ब्रूमस्त्वदन्यागममप्रमाणम् ॥ १० ॥ व्याख्या हे जिनेंद्र ! ( त्वदन्यागमम् ) तेरे कथन करे हुए आगमोंसें अन्य आगम (अप्रमाणम् ) प्रमाण नही, अर्थात् सत्पुरुषांकों मान्य नही है, ऐसे (मः) हम कहते हैं. अन्य आगमोंकों प्रमाणता किस हेतुसे नहीं है ? सोइ दिखाते हैं (हिंसाद्यसत्कर्मपथोपदेशात् ) बे, अन्य वेदादि आगम, हिंसादि असत् कर्मोंके पथके उपदेशक होनेसें, और (असर्वविन्मूलतयाप्रवृत्तेः) असर्ववित्, असर्वज्ञोंके मूलसें प्रवृत्त होनेसें, अर्थात् असर्वज्ञोंके कथन करे हुए होनेसें, और ( नृशंसदुर्बुद्धिपरिग्रहात् ) निर्दय, उपलक्षणसें मृषा, चोरी, स्त्री, परिग्रहके धारनेवाले दुर्बुद्धि, अर्थात् कदाग्रही असत्पक्षपातीयोंके ग्रहण करे हुए होनेसें; भावार्थ ऐसा है कि, जे आगम, निर्दयी, मृषावादी, अदत्तग्राही स्त्रीके भोगी और परिग्रहके लोभीयोंने ग्रहण करे हैं, अर्थात् वे जिन आगमोंकों जगत्में प्रवर्त्तावने
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