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तृतीयस्तम्भः। व्याख्या हे जिनेंद्र ! ( परशासनेभ्यः ) पर शासनोंसें, कैसें पर शासनोंसें? (प्रादेशिकेभ्यः) प्रमाणका एक अंश माननेसें जे मत उत्पन्न हुए है, अर्थात् एक नयको मानके जे परमत वादीयोंने उत्पन्न करे हैं, तिनका नाम प्रादेशिक मत है. आत्मा एकांत नित्यही है, वा क्षणनश्वरही है, वस्तु सामान्य रूपही है, वा विशेष रूपही है वा सामान्य विशेष स्वतंत्रही पृथक् २ है, कार्य सत्ही उत्पन्न होता है, वा असत्ही उत्पन्न होता है, गुण गुणीका एकांत भेदही है, वा एकांत अभेदही है, एकही ब्रह्म है, इत्यादि प्रादेशिक परमतोंसें (यत् ) जो (तव शासनस्य ) तेरे शासनका ( पराजय) पराजय है, सो, ऐसा है, जैसा ( खद्योतपोतद्युतिडम्बरेभ्यः) खद्योतके बच्चेकी पांखोंके प्रकाश रूप अडंबरसें ( हरि मंडलस्य) सूर्यके मंडलकी (इयं) येह (विडम्बना) विटंबना अर्थात् पराभव करना है, भा वार्थ यह है कि, क्या खद्योतका बच्चा अपनी पांखोंके प्रकाशसें सूर्यके प्रकाशकों पराभव कर सकता है ? कदापि नही कर सकता है. तैसेंही, हे जिनेंद्र ! एक नया भास मतके माननेवाले वादी, खद्योत पोतवत् तेरे अनंत नयात्मक स्याद्वाद मतरूप सूर्यमंडलका पराभव कदापि नही कर सक्ते हैं ॥ ८॥
भगवंतका शासन सर्व प्रमाणोंसे सिद्ध है. अथ, जो ऐसे शासनमें संशय करता है, क्या जाने यह भगवंत अर्हनका शासन सत्य है, वा नहीं? अथवा, जो भगवंतके शासनमें विवाद करता है कि, यह शासन सत्य न ही है, ऐसे पुरुषकों स्तुतिकार उपदेश करते हैं.
शरण्यपुण्ये तव शासनेऽपि संदेग्धि यो विप्रतिपद्यते वा ॥ स्वादौ सतथ्ये स्वहिते च पथ्ये संदेग्धि वा विप्रति पद्यते वा॥९॥
व्याख्या हे जिनेंद्र ! ( शरण्यपुण्ये ) शरणागतकों जो त्राण करणे योग्य होवे तिसकों शरण्य कहते हैं तथा पुण्य पवित्र ऐसे (तव ) तेरे (शासनेपि ) शासनके हूएभी ( यो ) जो पुरुष तेरे शासनमें (संदग्धि ) संदेह करता है (वा ) अथवा (विप्रतिपद्यते ) विवाद करता है, सो पुरुष ( स्वादौअत्यंत ) स्वादवाले ( तथ्ये) सच्चे
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