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________________ ९४ तत्वनिणर्यप्रासाद घृतादि द्रव्यों के हवन करनेसें पवन सुधरता है, तिससे मेघ शुद्ध वर्ष - ता है, तिससे मनुष्य निरोग्य रहते हैं, यह अनिके हवन करनेसें महानू उपकार है ऐसा मानना, वेदोंमें ईश्वरने मांस खाने की आज्ञा दीनी है, वेदमंत्र पवित्रित मांस खाने में दूषण नही, निरंतर मांससें हवन करना, केवल क्रियाही मोक्ष मानना, केवल ज्ञानसेंही मोक्ष मानना, रागी, द्वेषी, अज्ञानी, कामीकों परमेश्वर कथन करना, सारंभी, सपरिग्रहीकों साधु मानना, पशुयोंकों मारना चाहिये, नही तो येह बहुत हो गए तो, मनुष्योंकी हानि करेंगे, स्त्रीकों इग्यारह खसम करने, ऐसे नियोगकी ईश्वरकी आज्ञा है, इत्यादि कमार्गका उपदेश करो। कर्मके उदयकों अनिवार्य होनेसें (नु ) अव्यय है, खेदार्थ में तिससे बडा खेद है (नाम) कोमलामंत्रण में है वा प्रसिद्धार्थ में है तब तो ऐसा अर्थ हुवा कि, बडाही खेद है कि ऐसे असूया करके अंध पुरुष ( अन्यानपि ) अन्य जगत्वासी मनुयोंकोंभी ( प्रलम्भं ) कुमार्गके लाभ - प्रातिकों ( लम्भयन्ति ) प्राप्ति कराते हैं, अर्थात् आप तो कुमार्गकी देशना करनेसें नाशकों प्राप्त हुए हैं, परं अन्य जनोंकाभी कुमार्ग प्रवर्त्ताके नाश करते हैं. इतना करके भी संतोषित नही होते हैं, बलकि वे, असूया इर्षा करके अंधे ( सुमार्गगं ) सुमार्ग गत पुरुषकों, (तद्विद ) सुमार्गके जानकारकों और ( आदिशन्तं ) सुमार्गके उपदेशककों (अवमन्वते ) अपमान करते हैं. जैसे यह ईश्वरकों जगत्क• र्त्ता नही मानते हैं, वेदोंके निंदक हैं, वेद बाह्य हैं, नास्तिक हैं, जगत्कों प्रवाहसें अनादि मानते हैं, कर्मका फलप्रदाता निमित्तकों मानते हैं, परंतु ईश्वरको फलप्रदाता नही मानते हैं, आत्माकों देहमात्र व्यापक मानते हैं, षट्कायको जीव मानते हैं, इत्यादि अनेक तरेसें अपना मत चलाते हैं; इस वास्ते अहो लोको ! इनके मतका श्रवण करना तथा इनका संसर्ग करना, अछा नही है, इत्यादि अनेक वचन बोलके पूर्वोक्त तीनोंका अपमान करते हैं. ॥ ७ ॥ अथाग्रे भगवत्के शासनका महत्त्व कथन करते हैं, प्रादेशिकेभ्यः परशासनेभ्यः पराजयो यत्तव शासनस्य खद्योतपोतद्युतिडम्बरेभ्यो विडम्बनेयं हरिमण्डलस्य ॥ ८ ॥ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.003207
Book TitleTattvanirnaya Prasada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAmarchand P Parmar
Publication Year1902
Total Pages878
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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