SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 172
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ द्वितायस्तम्भः । दीप्तो मारयितुं दैत्यान् कुत्सितान् कनकच्छविः ॥ एतस्मात्कारणाद्देवः कुमारश्चापि सोऽभवत् ॥ ४१ ॥ इति श्रीमत्स्यपुराणे सप्तपञ्चाशदधिकशततमोऽध्यायः ॥ १५७॥ भाषार्थः - वीरभद्रने कहा हे कमललोचने ! मेरी स्नेह करनेवाली माताने भी मुझसे यही आज्ञा करी है, और कह गई है कि, किसी अन्य स्त्रीको भीतर मत जाने देना. यह सुनकर पार्वती देवी चितवन करने लगी कि, अहो जो वायु मुझसे कह आया था वह तो दैत्य था, स्त्री नहीं थी; मुझ क्रोधयुक्तने वीरभद्रको वृथाही शाप दिया; विशेषकरके क्रोधसे भरेहुए मूर्ख बुरा कार्य करडालते हैं, क्रोधसे कीर्ति नष्ट हो जाती है, क्रोधसे स्थिर लक्ष्मीका नाश होजाता है, मैंने विनाही विचारेहुए पुत्रको शाप देदिया. विपरीतबुद्धिवालोंको सहजहीमें विपत्ति प्राप्त होजाती है. ऐसे चितवन करके वह पार्वती लज्जापूर्वक वीरभद्र से कहने लगी; हे वीरभद्र ! मैं तेरी माता हूं, तू चित्तमें संदेह मत करे, मैं शिवजीकी प्यारी स्त्री हूं, हिमाचलकी पुत्री हूं; हे पुत्र ! मेरे शरीर की कांतिकरके तू शंका मत करे, मुझको ब्रह्माजीने प्रसन्न होकर गौरवर्ण देदिया है. हे पुत्र ! उस दैत्यके वृत्तांतसे मैंने तुझको विना समझे हुए शाप देदिया है वह तो दूर नहीं होसकेगा; परंतु यह कह देती हूं कि तुम मनुष्यके प्रभाव से शापसे निवृत्त होकर शीघ्रही आओगे. इसके पीछे वीरभद्र पूर्ण चंद्रमा केसमान कांतिवाली अपनी माता पार्वतीको शिरसे प्रमाण करने लगा. वीरभद्र कहता है, हे शरणागतवत्सले ! देवतादैत्यों के प्रणाम करते हुए मुकुटों की मणियोंसे शोभित चरणारविंदवाली! मैं तुझको प्रणाम करता हूं. हे सूर्यमंडलकेसमान शोभित शिरवाली, पर्वतके समान कांतिवाली, सर्पाकार टेढी भृकुटियोंवाली ! ऐसी जो आप हैं उनकेही मैं आश्रय हूं हे पार्वती ! प्रणाम करते हुएको जैसे तुम शीघ्रही वर देती हो ऐसा दूसरा वर देनेवाला तेरेसिवाय कौन है ? और शिवजी भी तेरे विना जगत्में किसीकी इच्छा नहीं करते हैं. हे निर्मलयोगके द्वारा अपने शरीरको महादेवजीके शरीरमंडलके समान करनेवाली ! और दैत्योंका नाश करने Jain Education International For Private & Personal Use Only ६९ www.jainelibrary.org
SR No.003207
Book TitleTattvanirnaya Prasada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAmarchand P Parmar
Publication Year1902
Total Pages878
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy