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द्वितीयस्तम्भः। नहीं जानता हुआ, धीरे धीरे यह वचन बोला, अर्थात् वह पार्वतीरूप दैत्य बोला कि, मैं तप करनेकेनिमित्त गई थी, वहां तुम्हारे विना मेरा चित्त नहीं लगा, इस कारण तुम्हारे पास आई हूं. ऐसे वचन सुनकर शिवजी कुछेक शंका विचार कर हृदयमें समाधान कर हंसकर बोले हे तन्वंगि! तू मेरे उपर क्रोधित हो गई थी, और दृढ विचार करके चली थी, अब विना प्रयोजन सिद्ध किये हुए कैसे चली आई? यह मुझको संदेह है. यह कहते हुए शिवजी उसके लक्षणोंको देखते भये. तब उसकी बाईं पांशूमें कमलका चिन्ह नहीं पाया, उस समय महादेवजी उस दानवी मायाको जानकर अपने लिंगपर बज्रास्त्रको रखकर उसके संग रमण करके उसको मारते भये. इस प्रकारसे उस मारे हुए दानवको वीरभद्रने नहीं जाना. और वह पर्वतकी देवता स्त्रीरूपवाले दानवको शिवजीसे मारा हुआ देख उस प्रयोजनको अच्छे प्रकारसे विना समझेही, वायुको दूत बनाकर पार्वतीकेपास भेजती भई. तब पार्वती वायुकेद्वारा उस वृत्तांतको सुन क्रोधसे लाल नेत्र कर बडे दुःखित हुए हृदयसे वीरभद्रको शाप देती भई. इति श्रीमत्स्यपुराणभाषाटीकायां पञ्चपञ्चाशदधिकशततमोऽध्यायः १५५
॥ देव्युवाच ॥ मातरं मां परित्यज्य यस्मात्वं स्नेहविक्लवात् ॥ विहितावसरः स्त्रीणां शंकरस्य रहोविधौ ॥१॥ तस्मात्ते पुरुषा रूक्षा जडा हृदयवर्जिता ॥ गणेशक्षारसदृशी शिला माता भविष्यति ॥२॥ निमित्तमेतद्विख्यातं वीरकस्य शिलोदये ॥ सोभवत्प्रक्रमेणैव विचित्राख्यानसंश्रयः ॥ ३॥ एवमुत्सृष्टशापाया गिरिपुन्यास्त्वनन्तरम् ॥ निर्जगाम मुखात् क्रोधः सिंहरूपी महाबलः ॥४॥ स तु सिंहः करालास्यो जटाजटिलकंधरः ॥
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