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________________ द्वितीयस्तम्भः । इति चिन्त्य हरस्तस्य अभिज्ञानं विधारयन् ॥ नापश्यद्वामपार्श्वे तु तदङ्के पद्मलक्षणम् ॥ ३५ ॥ लोमावर्त्तं तु रचितं ततो देवः पिनाकधृक् ॥ अबुध्यद्दानवीं मायामाकारं गूह्यंस्ततः ॥ ३६ ॥ मेद्रे वत्रास्त्रमादाय दानवं तमशातयत् ॥ अबुध्यद्वीरको नैव दानवेन्द्रं निषूदितम् ॥ ३७ ॥ हरेण सूदितं दृष्ट्वा स्त्रीरूपं दानवेश्वरम् || अपरिच्छिन्नतत्त्वार्था शैलपुत्र्यै न्यवेदयत् ॥ ३८ ॥ दूतेन मारुतेनाशुगामिना नगदेवता ॥ श्रुत्वा वायुमुखादेवी क्रोधरक्तविलोचना ॥ अशपद्वीरकं पुत्रं हृदयेन विदूयता ॥ ३९ ॥ इति श्रीमत्स्यपुराणे पञ्चपञ्चाशदधिकशततमोऽध्यायः ॥ १५५ ॥ भाषा - सूतजी बोले इसके अनंतर वह पार्वती कुसुमामोदिनीनामवाली उस पर्वतकी देवता सतीको सन्मुख आती हुई देखती भई, वह सती देवता भी पार्वतीको देखकर स्नेहपूर्वक बोली कि, हे पुत्री ! तू कहां जाती है, तब पार्वती उस अपने शिवजीके प्रभावसे उत्पन्न हुए अपने क्रोधरूप कारणको कहती भई, और अपनी माताकेही समान उस सतीको मानकर यह वचन बोली. हे अनिंदिते! तू इस पर्वतकी देवता है, संदैव यहां रहती है, और मेरी बडी प्यारी है, इस हेतुसे मैं तेरे आगे जो कहती हूं वह तुझको करना चाहिये. इस पर्वतमें जो अन्य कोई स्त्री आवे, अथवा शिवजी एकांतमें किसी अन्य स्त्रीसे बतरावें तो, तू मुझको अवश्य खबर दीजो, उसकेपीछे मैं प्रबंध करलूंगी. ऐसा कहकर पार्वती अपने हिमालय पर्वतमें जाती भई. पार्वती अपने पिताके बगीचे में ऐसे जाती भई जैसे कि, आकाशमें मेघमाला चली जाती है, ऐसे प्रकारसे आकाशमार्ग होकर उसने गमन किया, और वहां जाकर वृक्षोंके वल्कल For Private & Personal Use Only Jain Education International ५९ www.jainelibrary.org
SR No.003207
Book TitleTattvanirnaya Prasada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAmarchand P Parmar
Publication Year1902
Total Pages878
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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