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________________ १८ सस्वानणेयप्रासादसमीपमें मृगकेसें नेत्र, चमेलीके सुगंधित पुष्पोंकों धारण किये उत्तम आभूषणोंसे शोभित, साक्षात् मानों कामदेवही रूपको धारण किये चले. आते हुए श्रीमान् सांबको देख कर, कामदेवके बाणोंसे पीडित हो कर, भोगकी इच्छासें उसको देखेगी, तब उनके चित्तमें कामकी वृद्धि होगी. उस वार्ताको अंतर्यामी श्रीकृष्णजी जान कर उन सब स्त्रियोंकों यह शाप देंगे कि, जो तुमने मेरे पीछे ऐसी कामदेवकी चंचलता करी है इस हेतुसे तुम सबकों चोर हरेंगे. फिर इस शापसें दु:खित हो कर वह स्त्रियां श्रीकृष्णको प्रसन्न करेगी. उस समय श्रीकृष्णजी उनके दासपनेका शाप दूर करनेवाले, और आगे होनेवाले मनुष्योंके कल्याण करनेवाले इस व्रतको कहेंगे कि, हे स्त्रियों! तुझारे आगे जो दाल्भ्यऋषि व्रत कहेंगे वही व्रत तुह्मारे दासभावको दूर करेगा. ऐसा कहकर श्रीकृष्णजी उन स्त्रियोंसें मेलमिलाप करके चले जायंगे. अर्थात् बहुत काल व्यतीत हो जानेपर पृथ्वीका भार उतारनेके पीछे श्रीकृष्णचंद्रजी परमधामकों चलेजायंगे. इनके चले जानेकेपीछे जब मुसलयुद्ध होकर यादव नष्ट होजायंगे, उस समय अर्जुनकी रक्षित की हुई कृष्णकी स्त्रियांओंको अर्जुनके समीपसें शूद्रलोक छीन कर समुद्रपार ले जाकर भोग करेंगे. वहां उनकेपास महातपस्वी योगात्मा दाल्भ्यऋषि आवेंगे. तब वह स्त्रियांओं उन ऋषिको अर्घदानसे पूजन कर प्रणाम करके अश्रुओंसे व्याकुल अनेक भोग दिव्यमाला पुष्पचंदनादिकोंको स्मरण करती हुई जगतोंके पति अपने भर्ताका, अनेक प्रकारके रत्नोंसे युक्त द्वारकापुरीका, अपने उत्तम २ स्थानोंका, देवताओंके समान रूपवाले द्वारकावासिओंका और अपने पुत्रभ्राताआदि सुहृदोंका स्मरण करती हुई दाल्भ्यमुनिके समीप सन्मुख खडी होके यह प्रश्न करेंगी कि, हे भगवन् ! हम सबोंको चोरधाडियोंने बलकर छीन लिया, और घरोंपर ले जाकर भोग किया. अब हम अपने धर्मसे हीन हो गई हैं; सो आपके शरण हैं. हे महात्मन् ! प्रथम श्रीकृष्णजीके दिये हुए शापसे हम वेश्याभावको प्राप्त हो गई हैं. हमारे उपदेशकर्ता आपही नियत किये गयेहैं, हे तपोधन! आप कृपा करके वेश्याओंका धर्म वर्णन कीजिये-इसप्रकारसे पूछे हुए दाल्भ्यऋषि उन-स्त्रियोंसे वेश्याओंके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003207
Book TitleTattvanirnaya Prasada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAmarchand P Parmar
Publication Year1902
Total Pages878
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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