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________________ . हितविस्तम्भ कस्मादीशेन संयोगं प्राप्य वेश्यात्वमागताः ॥१८॥ वेश्यानामपि यो धर्मस्तन्नो ब्रूहि तपोधन ॥ कथयिष्यत्यतस्तासां स दाल्भ्यश्चैकितायनः ॥ १९ ॥ __ ॥ दालस्य उवाच ।। जलक्रीडा विहारेषु पुरा सरसिमानसे॥ भवतीनां च सवासां नारदोभ्यासमागतः॥२०॥ हुताशनसुता सर्वा भवन्त्योऽप्सरस: पुरा॥ अप्रणम्यावलेपेन परिएष्टः स योगवित् ।। कथं नारायणोऽस्माकं भर्ती स्यादित्युपादिश ॥ २१॥ तस्माद्वरप्रदानं वः शापश्चायमभूत्पुरा ।। शय्यायप्रदानेन मधुमाधवमासयोः॥ २२॥ सुवर्णोपस्करोत्सर्गाद्वादश्यां शुक्लपक्षतः ।। भर्त्ता नारायणो नूनं भविष्यत्यन्यजन्मनि ॥२३॥ यदकत्वा प्रणामं मे रूपसौभाग्यमत्सरात् ॥ परिटष्टोऽस्मि तेनाशु वियोगो वा भविष्यति॥ चौरैरपहृताः सर्वा वेश्यात्वं समवाप्स्यथ ॥ २४॥ एवं नारदशापेन केशवस्य च धीमतः॥ वेश्यात्वमागताः सर्वा भवन्त्य: काममोहिताः॥ इदानीमपि यद्वक्ष्ये तच्छणुध्वं वरांगना; ॥२५॥ भाषा-ब्रह्माजी बोले, हे शिवजी! मैनें पुराणोंमें वर्णआश्रमोंकी उत्पत्ति और धर्मशास्त्रका निश्चय सुना है. अब उत्तम स्त्रियाओंके सदाचारको सुनना चहाता हूं. शिवजी बोले, हे ब्रह्माजी! इसी द्वापरयुगमें श्रीकृष्णके सोलह हजार स्त्रियां होंगी तब एक समय वसंतऋतुमें कोकिलाभ्रमरादिकोंसे कूजित, खिलेहुए कमलोंसें शोभित सरोवरोंवाले पुष्पितवनमें एकांत स्थानोंके सरोवरोंके तटोंपै विराजमान हुईं वह स्त्रियां अपने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003207
Book TitleTattvanirnaya Prasada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAmarchand P Parmar
Publication Year1902
Total Pages878
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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