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प्रथमस्तम्भः |
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सक्ते हैं. अब सोचना चाहिये कि, प्राकृतमें जो रचना करी है सो धूर्त्ततासें करी है. यह लिखना सिवाय निर्विवेकी, कदाग्रहीसें और किसीका हो सक्ता है ? यदि कोई किसी अपठित जाटके आगे सुंदर संस्कृत वेद, जिनशतक काव्यादि ग्रंथ रख देवें तो, क्या वो जाट तिसकों पढ सक्ता है ? नही. जेकर वो जाट कहै, इन पूर्वोक्त शास्त्रोंके रचनेवाले धूर्त्त और अपंडित थे, तो क्या तिस जाटका वचन बुद्धिमान् सत्य मानेंगे ? कदापि नही. ऐसेंही दयानंदसरस्वतिजीका कहना है. जितनाचिर षड्भाषा के व्याकरण और न्यायादि न पढे, तब तक वो पूर्ण विद्वानोंकी पंक्ति में नहीं गिना जाता है.
और दयानंदसरस्वतिजीने जो वेदों ऊपर भाष्य रचा है, सो निःकेवल स्वकपोलकल्पित है. जो कोई विद्वान् देखता है, तो मुह मचकोडता है. और दयानंदस्वामीने जो वेदोंके स्वकपोलकल्पित अर्थ लिखे हैं, वे केवल वेदोंका बिहूदापण छिपानेके वास्ते है. सज्जनोंकों ऐसा काम करणा उचित नही है, कि वेश्याकों सती सिद्ध करना; परंतु सतीकों झूठा कलंक लगा होवे तो सज्जन तिसको दूर करणेका यत्न करते हैं. और अपने अपने संप्रदायमें अपने अपने मतके पुस्तकोंके पूर्व पुरुषोंके करे अर्थोंसे अपना स्वकपोलकल्पित मत सिद्ध न होनेसें अक्षरोंके अनुसार जो स्वकपोलकल्पित अर्थ करते हैं, वे महा मिथ्याहष्टियोंके लक्षण है; जैसें, जैनमतके नामसें अपठित, जैनाभास, ढुंढक साधु करते हैं. . तैसेंही दयानंदस्वामी पंडित कहलाके करते थे.
क्योंकि, ऋग्वेदादि चारों वेदोंमें जीवहिंसा और इंद्र, वरुण, कुबेर, नक्त, पूषा, यम, अश्विनौ, उषा, नदी इत्यादिकी स्तुति, और प्रार्थनाके सिवाय, और कितनीक जुगुप्सनीय, उपहास्यजनक बातोंके सिवाय जीवोंके कल्याणकारी मोक्ष मार्गका किंचित् भी उपदेश नही है. और न कोई संसारकी उपकारिणी विद्याका कथन है. सो वाचक वर्गको मालुम होनेके वास्ते थोडासा लिख दिखाते हैं.
प्रथम वेदोंका हिंसकपणा देखना होवे तो हमारे बनाए अज्ञानति
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