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प्रथमस्तम्भः। इस पूर्वोक्त सर्व लेखसे यही सिद्ध हुआ, कि जैनमतके सर्व सूत्र श्री महावीरजीसेंही प्रचलित हुए हैं; परंतु यह नही समझना कि शेष त्रेवीस (२३) तीर्थंकरोंके समयमें जैनमतके शास्त्र नही थे.
पूर्वपक्ष:-त्रेवीस तीर्थंकरोंके समयमें किस किस नामके शास्त्र जैनमतके थे ?
उत्तरपक्ष:-जो नाम संप्रति कालमें आचारादि द्वादशांगोंका है, सोही नाम शेष तीर्थंकरोंके समयमें था,
पूर्वपक्ष:-श्री ऋषभदेवके समयकेही शास्त्र श्री महावीरजीताई तथा संप्रति कालमें भी क्यों नही रहे ? और अजितादि त्रेविस तीर्थंकरोंकों अपने अपने शासनको प्रचलित करने वास्ते नवीन नवीन द्वादशांगकी रचना करनेका क्या प्रयोजन था ?
उत्तरपक्ष:-हे भव्य ! जे अनंत तीर्थंकर अतीत कालमें हो गए है, और जे अनंत तीर्थंकर आगामि कालमें होवेंगे, तिन सर्वके द्वादशांगी रचनाके तत्वमें किंचित्मात्रभी अंतर नही; किंतु पुरुष स्त्रीयोंके नाम, और गद्य पद्यादि रचना इत्यादिमें अंतर है, शेष तत्वस्वरूप एकसरीखा है; इस वास्ते जो श्री महावीरजीके समयकी रचना शास्त्रोंकी है, सोही श्री ऋषभदेवजीके समयमें थी. इस वास्ते जैनमतके पुस्तक सर्व मतोंके पुस्तकोंसे पुराने सिद्ध होते हैं. __ और जो तीर्थंकर अपने अपने तीर्थ में नवीन उपदेश द्वादशांगीका करते हैं, वे अपना अपना तीर्थंकर नाम पुण्य प्रकृति रूप कर्मके क्षय करने वास्ते. क्योंकि, विना उपदेशके तीर्थ नही होता है; तीर्थके करे विना तीर्थंकर नाम कर्मका फल नही भोगा जाता है, और तीर्थकर नाम कर्मके फल भोगे विना मुक्ति नहीं होती है। इस वास्ते उपदेश करते हैं. और इसी हेतुसें नवीन शास्त्र रचे जाते हैं, परंतु हकीकतमें पुरानेही हैं.
१ आचारांग १, सूत्रकृतांग २, स्थानांग ३, समवायांग ४, विवाहप्रज्ञप्ति ५, ज्ञाताधर्मकथा ६, उपासक दशांग ७, अंतगड ८, अनुत्तरोववाइ ९, प्रश्न व्याकरण १०, विपाकश्रुत ११, और दृष्टिवाद १२.
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