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________________ फंसाना यही मुख्य हेतु मालूम होता है। और उस जगह चैत्यवृक्ष कहे हैं सो ज्ञान की निश्राय नहीं कहे है, किंतु चौतरबंध वृक्ष के नाम ही चैत्यवृक्ष है, और सो हम इसी अधिकार में प्रथम लिखा आये हैं। भगवान् जिस वृक्ष नीचे केवलज्ञान पाये है, सो वृक्ष चौतरा सहित थे, और इसी वास्ते उनको चैत्यवृक्ष कहा है, ऐसे समझना । परंतु चैत्य शब्द का अर्थ ज्ञान नहीं समझना । तथा तुम ढूंढक बत्तीस सूत्रों के विना अन्य कोई सूत्र तो मानते नहीं हो, तो अर्थ करते हो सो किस के आधार से करते हो सो बताओ, कयोंकि कुल कोषों में प्रायः हमारे कहे मुताबिक ही चैत्य शब्द का अर्थ कथन किया है, परंतु तुम चैत्य शब्द का अर्थ साधु तथा ज्ञान वगैरह करते हो, सो केवल स्वकपोलकल्पित है। और इस से स्पष्ट मालूम होता है कि निःकेवल असत्य बोल के | तथा असत्य प्ररूपणा करके बेचारे भोले लोगों को अपने कुपंथ में फंसाते हो। इति । १९. आनंद श्रावक ने जिनप्रतिमा वांदी है : सोलहवें प्रश्नोत्तर में आनंद श्रावक ने जिनप्रतिमा वांदी नहीं है, ऐसे ठहराने के वास्ते जेठमल ने उपासक दशांगसूत्र का पाठ लिख के उस का अर्थ फिराया है । इस वास्ते सो ही सूत्रपाठ सच्चे यथार्थ अर्थ सहित नीचे लिखते हैं, श्रीउपासक दशांग सूत्र प्रथमाध्ययने, यत - नो खलु मे भंते कप्पइ अजप्पभियं च णं अन्नउत्थिया वा अन्नउत्थियदेवयाणि वा अन्नउत्थिय परिग्गहियाई अरिहंतचेइयाई वा वंदित्तए वा नमंसित्तए वा पुव्विं अणा लत्तेणं आलवित्तए वा संलवित्तए वा तेसिं असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं ना दाउं वा अणुप्पदाउं वा णण्णत्थ रायाभिओगेणं गणाभिओगेणं बलाभिओगेणं देनयाभिओगेणं गुरुनिग्गहेणं वित्तिकंतारेणं कप्पइ मे समणे निग्गंथे फासुएणं एसणिज्जेणं असण-पाण-रूाइम-साइमेणं वत्थपडिग्गह-कंबलपायपुच्छणेणं पाडिहारिय पीढफलग-सेजासंथारएणं ओसहभेसज्जेण य पडिलाभेमाणस्स विहरित्तए ति कट्ट इमं एयाणुरूवं अभिग्गहं अभिगिण्हइ ॥ ___अर्थ - हे भगवन् ! मुझको न कल्पे क्या न कल्पे सो कहते हैं, आज से ले के अन्य तीर्थी चरकादि, अन्य तीर्थी के देव हरि हरादिक, और अन्य तीर्थी के ग्रहण किये अरिहंत के चैत्य-जिनप्रतिमा इन को बंदना करना, नमस्कार करना, तथा प्रथम से विना बुलाये बुलाना, वारंवार बुलाना, यह सर्व न कल्पे, तथा उन को अशन, पान, खादिम, और स्वादिम, यह चार प्रकार का आहार देना, वारंवार देना, न कल्पे; परंतु इतने कारण विना सो कहते हैं, राजा की आज्ञा से, लोग के समुदाय की आज्ञा से, बलवान के आग्रह से क्षद्रदेवता के आग्रह से गरु-माता पिता कलाचार्य वगैरह के आग्रह से, इन ६ छिंडी (आगार) से पूर्व कहे उन को वंदनादि करने से दोष न लगे; यह न कल्पे सो कहा । अब कल्पे सो कहते हैं, मुझ को कल्पे, जैन श्रमण निग्रंथ को | फासु अर्थात् जीव रहित, और एषणीय अर्थात् दोष रहित, अशन, पान Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003206
Book TitleSamyaktva Shalyoddhara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Punyapalsuri
PublisherParshwabhyudaya Prakashan Ahmedabad
Publication Year1996
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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