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सम्यक्त्वशल्योद्धार
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| मूढ ! यह तो प्रत्यक्ष है कि उन को तो इस कार्य से उलटी दर्शनशुद्धि है । परंतु | चारित्र मोहनी का उदय तो तुम ढूंढकों को है, ऐसे प्रत्यक्ष मालूम होता है ।
फिर जेठमल लिखता है कि " चारणमुनियों ने अपने स्थान में आ के कौन से | चैत्य वांदे ।" उत्तर - सूत्रपाठ में चारणमुनि "इह मागच्छइ" अर्थात् यहां आवे ऐसे कहा है । उस का भावार्थ यह है कि जिस क्षेत्र से गये हो उस क्षेत्र में आवे, आ के |" इह चेईआई वंदइ अर्थात् इस क्षेत्र के चैत्य अर्थात् अशाश्वती जिन प्रतिमा उन को परंतु अपने उपाश्रये आवे ऐसे नहीं कहा है । इस बाबत में के लिखता है कि " उपाश्रय में तो चैत्य होवे नहीं । इस वास्ते वहां कौन से चैत्य वांदे ?" यह केवल जेठमल की बुद्धि का अजीर्ण है, अन्य नहीं, और श्री | भगवतीसूत्र के पाठ से तो शाश्वती, अशाश्वती जिन प्रतिमा सरीखी ही है, और इन | दोनों में अंशमात्र भी फेर नहीं है, ऐसे सिद्ध होता है ।
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वांदे ऐसे कहा है | जेठमल कुयुक्ति कर
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जेठमल ने लिखा है कि " चारणमुनि वह कार्य कर के आ के आलोये पडिकमे विना, | काल करे तो विराधक हो ऐसे कहा है, सो चक्षु इंद्रिय के विषय की प्रेरणा से द्वीपसमुद्र | देखने को गये हैं इस वास्ते समझना " यह लिखना जेठमल का बिलकुल मिथ्या है क्योंकि | उन को जो आलोचना प्रतिक्रमणा करना है सो जिनवंदना का नहीं है, किंतु उस में होए | प्रमाद का है; जैसे साधु गोचरी कर के आ के आलोचना करता है सो गोचरी की नहीं । किंतु उस में प्रमादवश से लगे दूषणों की आलोचना करता है। वैसे ही चारणमुनियों को भी लब्ध्युपजीवन प्रमाद गति है । और दूसरा प्रमादका स्थानक यह है कि जो लब्धि के | बल से तीर के वेग की तरह शीघ्रगति से चलते हुए रास्ते में तीर्थयात्रा आदि शाश्वत | अशाश्वत जिनमंदिर विना वांदे रह जाते हैं, तत्संबंधी चित्त में बहुत खेद उत्पन्न होता है, इस तरह तीर के वेग की तरह गये सो भी आलोचना स्थानक कहिये ।
फिर जेठमल ने अरिहंत को चैत्य ठहराने वास्ते सूत्रपाठ लिखा है उस में "देवयं चेईय" इस शब्द का अर्थ " धर्मदेव के समान ज्ञानवंत की " ऐसे किया है सो जूठा है । | क्योंकि देवयं चेईयं दैवतं चैत्यं इव-अर्थ- देवरूप चैत्य अर्थात् जिन प्रतिमा की जैसे पज्जुवासामि-सेवा करता हूं, यह अर्थ ारा है । जैठा और उस के ढूंढक इन दोनों | शब्दों को द्वितीयाविभक्ति का वचन मात्र ही समझते है, परंतु व्याकरणज्ञान विना शुद्ध विभक्ति, और उस के अर्थ का भान कहां से हो ? केवल अपनी असत्य बात को | सिद्ध करने के वास्ते जो अर्थ ठीक लगे सो लगा देना ऐसा उन का दुराशय है, ऐसा इस बात से प्रत्यक्ष सिद्ध होता है ।
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फिर समवायांगसूत्र का चैत्य वृक्ष संबंधी पाठ लिखा है सो इस ठिकाने विना प्रसंग है । वैसे ही उस पाठ के लिखने का प्रयोजन भी नहीं है । परंतु फक्त पोथी बडी करनी, और हमने बहुत सूत्रपाठ लिखे हैं, ऐसे दिखा के भद्रिक जीवों को अपने फंदे में
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