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किया हो तब तो भंगी, चमार, फिरंगी, मुसलमानादिक सर्व ढूंढकों के वंदनीय ठहरेंगे, क्योंकि वह सर्व ब्राह्मीलिपि को जानते हैं । यदि नैगमनयकी अपेक्षा कहोगे कि ब्राह्मीलिपि के बनाने वालों को नमस्कार किया है तो शुद्ध नैगमनय के मत से सर्व लिखारी तुम को वंदनीय होंगे। यदि कहोगे इस अवसर्पिणी में ब्राह्मीलिपि के आदि कर्ता को नमस्कार किया है । तब तो जिस वक्त श्रीऋषभदेवजी ने ब्राह्मीलिपि बनाई थी, उस वक्त तो वह असंयती थे। और असंयतिपने में तो तुम वंदनीय मानते नहीं हो । तो फिर 'नमो बंभीए लिवीए' इस पाठ का तुम क्या अर्थ करोगे सो बताओ ? और हम तो अक्षररुप ब्राह्मीलिपि को नमस्कार करते हैं जिस से कुछ भी हम को बाधक नहीं है, तथा तुम ब्राह्मीलिपि के आदि कर्ता को नमस्कार है ऐसे कहते हो सो तो मिथ्या ही है, क्योंकि 'बंभीए लिवीए' इस पद का ऐसा अर्थ नहीं है । यह तो उपचार कर के खींच के अर्थ निकालते हो, परंतु बिना प्रयोजन उपचार करने से सूत्रदोष होता है, तथा तुम्हारे कथनानुसार ब्राह्मीलिपि के कर्ता को इस ठिकाने नमस्कार किया हे तो प्रभु केवल एक ब्राह्मीलिपि के ही कर्ता नहीं है। किंतु कुल शिल्प के आदि कर्ता हैं । और यह अधिकार श्रीसमवायांगसूत्र में है तो वहां नमो 'सिप्पसयस्स' अर्थात शिल्प के कर्ता को नमस्कार हो ऐसा भ्रान्तिरहित पद गणधर महाराज ने क्यों न कहा ? इस वास्ते इस से यही निश्चय होता है कि तुम जो कहते हो, सो सूत्रविरुद्ध ही है । तथा 'नमो अरिहंताणं' इस पद में क्या ऋषभदेव न आये जो फिर से बंभीए लीवीए' यह पद कह के पृथक् दिखलाए ? कदापि तुम कहोगे कि ब्राह्मीलिपि की क्रिया इन्हों ने ही दिखालाई है । इस वास्ते क्रिया गुण कर के वंदनीय है; तब तो ऋषभदेव जी को बंदना करने से ब्राह्मीलिपि को तो वंदना अवश्यमेव हो गई, क्योंकि क्रिया का कर्ता वंद्य तो क्रिया भी वंद्य हुई।
फिर जेठा लिखता है कि "अक्षरस्थापना तो सुधर्मास्वामी के वक्त में नहीं था, सो तो श्रीवीर निर्वाण के नवसौ अस्सी (९८०) वर्ष पीछे पुस्तक लिखी गए तब हुआ है।"
उत्तर-अरे मूढ ! सुधर्मास्वामी के वक्त में अक्षरस्थापना ही नहीं थी तो क्या श्रीऋषभदेवजी ने अठारह लिपि दिखलाई थी उनका व्यवच्छेद ही हो गया था ? और वैसे था तो गृहस्थों का लैन, देन, हुण्डी, पत्री, उगात्री, पत्रलेखन, व्याज वगैरह लौकिक व्यवहार कैसे चलता होगा ? जरा विचार कर के बोलो ! परंतु इस से हम को तो ऐसे ही मालूम होता है कि जेठमल को और उस के ढूंढकों को सूत्रार्थ का ज्ञान ही नहीं है; क्योंकि श्री अनुयोगद्वारसूत्र में कहा है कि-दव्वसुअं जं पत्तय-पोत्थय-लिहियं अर्थ-द्रव्य श्रुत सो जो पत्र पुस्तक में लिखा हुआ हो तो अरे कुमतियो ! यदि उन दिनों में ज्ञान लिखा हुआ, और लिखा जाता न होता तो गणधर महाराज ऐसे क्यों कहते ? इस वास्ते मतलब यही समझने का है कि उन दिनों में पुस्तक थी अठारह लिपि थी;
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