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सम्यक्त्वशल्योद्धार
पूजते हैं; परंतु तुम्हारे माने बत्तीस सूत्रों में तो करकंडु, दुमुख, नमिराजा, और नगई राजा, क्या क्या देख के प्रतिबोध हुआ; सो है नहीं और अन्य सूत्र तथा ग्रंथों को तो तुम मानते नहीं हो तो यह अधिकार कहां से ला के जेठे ने लिखा है सो दिखाओ ?
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तथा जेठा लिखता है, कि " सूत्रों में चंपा प्रमुख नगरियों की सर्व वस्तुओं का वर्णन किया, परंतु जिनमंदिर का वर्णन क्यो नहीं किया ? यदि होता तो करते, इस | वास्ते उस वक्त जिनमंदिर ही नहीं" उस का उत्तर- - श्रीउववाइसूत्र में लिखा है कि चंपानगरीमें "बहुला अरिहंत चेइआइं" अर्थात् चंपानगरी में बहुत अरिहंत के मंदिर हैं । | तथा श्रीसमवायांगसूत्र में आनंदादिक दशश्रावकों के जिनमंदिर कहे हैं, और | आनंदादिने वांदे पूजे हैं इत्यादि अनेक सूत्रपाठ हैं । तथापि मिथ्यात्व के उदय से जेठे को दीखा नहीं है तो हम क्या करें ?
उत्तर
फिर जेठा लिखता है "आज कल प्रतिमा को वंदने वास्ते संघ निकालते हो तो साक्षात् भगवंत को वंदने वास्ते किसी श्रावक ने संघ क्यों नहीं निकाला" ? उस का भगवंत को वंदना करने पूजा करने को इकट्ठे हो कर जाना उस का नाम संघ है, सो जब भगवंत विचरते थे तब जहां जहां समवसरे थे, वहां वहां उस उस नगर के राजा, राजपुत्र, सेठ, सार्थवाह आदि बडे आंडबर से चतुरंगिणी सेना सज के प्रभु | को वंदना करने वास्ते आये थे । सो भी संघ ही है जिनके अनेक दृष्टांत सिद्धांतों में प्रसिद्ध हैं तथा भगवंत श्रीमहावीरस्वामी पावापुरी में पधारे तब नव मलेच्छी जाति के और नवलेच्छी जाति के एवं अठारह देश के राजा इकठ्ठे हो कर प्रभु को वंदना करने | वास्ते आये हैं उन को भी संघ ही कहते हैं । परंतु जेठे को संघ शब्द के अर्थ की भी खबर नही मालूम देती है । तथा प्रभु जंगम तीर्थ थे, ग्रामानुग्राम विहार करते थे, एक | ठिकाने स्थायी रहना नहीं था । इस से उन को दूर वंदना करने वास्ते विशेषतः न गये हो तो इस में क्या विरोध है ?
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और चौथे आरे में भी स्थावरतीर्थ को वंदना करने वास्ते बडे २ संघ निकालके | बडे आडंबर से भरत चक्रवर्त्ती आदि गये हैं । वैसे आजकल भी सम्यग्दृष्टि जीव संघ निकाल के यात्रा के वास्ते जाते हैं, सो प्रथम लिख आये हैं ।
फिर जेठमल लिखता है " सिद्धांतों में स्थविर भगवंत को वीतराग समान कहा है, परंतु प्रतिमाको वीतराग समान नहीं कहा है ।" उसका उत्तर - श्रीरायपसेणीसूत्र में सुरियाभ के अधिकार में जहां सुरियाभ ने जिनप्रतिमा के आगे धूप किया है, वहाँ | सूत्रपाठ में कहा है कि "धुवं दाउण जिणवराणं । अर्थ-जिनेश्वर को धूप कर के" तो अरे कुमतियो ! विचार करो इस ठिकाने जिनप्रतिमा को जिनवर तुल्य गिनी है, तथा श्रीउववाइसूत्र में भी जिनप्रतिमा को जिनवर तुल्य कहा है । सो नेत्र खोल के देखोगे तो दीखेगा ।
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