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________________ सम्यक्त्वशल्योद्धार ११. नमुत्थुणं के पिछले पाठ की बाबत : जेठा मूढमति ११ वें प्रश्न में लिखता है कि, " नमुत्थुणं में अधिक पद डाले हैं " यह लिखना जेठमल का असत्य है, क्योंकि हमने नमुत्थुणं में कोई भी पद बढाया नहीं है, नमुत्थुणं तो भाव अरिहंत की स्तुति है, और जो अंत की गाथा है सो द्रव्य अरिहंत की स्तुति है। ढूंढिये द्रव्य अरिहंत को वंदना करनी निषेध करते हैं, क्योंकि ढूंढिये उन को असंजती समझते हैं। इस से मालूम होता है कि ढूंढियों की बुद्धि ही भ्रष्ट होई हुई है। श्रीनंदिसूत्र में २६ आचार्य जिनमें २४ स्वर्ग में देवता हुए हैं उनको नमस्कार किया है तो नमुत्थुणं के पिछले पाठ में क्या मिथ्या है ? यदि ढूंढिये इसी कारण से नंदिसूत्र को भी झूठा कहेंगे तो जरूर उन्होंने मिथ्यात्व रूप मदिरापान कर के झूठा बकवाद करना शुरू किया है ऐसे मालूम होवेगा । तथा अपने गुरु को जो मर गए हैं। थापकनिन्हव होने से हमारी समझ मुताबिक तो नरक तिर्यंचादि। गति में गये होगे। मूर्ख ढूंढिये उन को देवगति में गये समझ कर उनको वंदना क्यो करते हैं ? क्योंकि वह तो असंयती, अविरति, अपञ्चक्रवाणी हैं ! कदापि ढूंढिये कहें, कि हम तो गुरुपद को नमस्कार करते हैं, तो अरे मूढों, हमारी वंदना भी तो तीर्थंकर पद को ही है और सो सत्य है तथा इसीसे द्रव्य निक्षेपा भी बंदनीय सिद्ध होता है। श्रीआवश्यकसूत्र में नमुत्थुणं की पिछली गाथा सहित पाठ है, और उसी मुताबिक हम कहते हैं, इसवास्ते जेठेकुमति का लिखना बिलकुल मिथ्या है । प्रश्न के अंत में नमुत्थुणं इंद्रने कहा है, इस बाबत निःप्रयोजन लेख लिख कर जेठमल ने अपनी मूढता जाहिर की है। प्रश्न के अंतर्गत द्रव्य निक्षेपा वंदनीय नहीं है ऐसे जेठेने ठहराया है सो प्रत्यक्ष मिथ्या है क्योंकि श्रीठाणांगसूत्र के चौथे ठाणे में चार प्रकार के सत्य कहे हैं, यत - चउव्विहे सच्चे पण्णत्ते । नामसच्चे, ठवणा सञ्चे, दव्वसच्चे भावसञ्चे ।। अर्थ - चार प्रकार के सत्य कहे हैं: १. नामसत्य, २. स्थापनासत्य, ३. द्रव्यसत्य ४. भावसत्य । इस सूत्रपाठ में द्रव्यसत्य कहा है और इससे द्रव्य निक्षेपा सत्य है ऐसे सिद्ध होता है जेठमल ने लिखा हे कि "आगामी काल के तीर्थंकर अब तक अविरति, अपञ्चक्खाणों चारों गति में हो उनको वंदना कैसे हो ?" उत्तर - श्रीऋषभदेवजी के समय में आवश्यक में चउविसत्था था या नहीं ? यदि था, तो उसमें अन्य २३ तीर्थंकरोंको श्रीऋषभदेवजी के समय के साधु श्रावक नमस्कार करते थे कि नहीं ? ढूंढियों के कथनानुसार तो वह अन्य २३ तीर्थकर वंदनीय नहीं है ऐसे ठहरता है और श्रीऋषभदेव भगवान के समय के साधु श्रावक तो चउविसत्था कहते थे और होने वाले २३ तीर्थंकरों को नमस्कार करते थे, यह प्रत्यक्ष है । इस वास्ते अरे मूढ ढूंढियो ! Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003206
Book TitleSamyaktva Shalyoddhara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Punyapalsuri
PublisherParshwabhyudaya Prakashan Ahmedabad
Publication Year1996
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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