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सम्यक्त्वशल्योद्धार
अधिष्ठित हैं, इस लिये इनके नाम और और कहे हैं; और इस कूट ऊपर कुछ नहीं है । इस वास्ते इसको सिद्धायतन कूट कहा है, "इसका उत्तर-अरे कुमतिओ ! बताओ तो सही, कहाँ कहा है कि दूसरे कूटों पर देवदेवियां हैं । और इस कूट ऊपर नहीं है, मनःकल्पित बाते बना के असत्य स्थापन करना चाहते हो; सो तो कभी भी होना नहीं है, परंतु ऊपर के लेख से तो सिद्धायतन नाम को पुष्टि मिलती है । क्योंकि जिस कूट के ऊपर सिद्धायतन होता है, उसी कूट को शास्त्रकार ने सिद्धायतन कूट कहा है।
तथा श्रीजीवाभिगमसूत्र में सिद्धायतन को विस्तारपूर्वक अधिकार है, सो जरा ध्यान लगा कि पढोगे तो स्पष्ट मालूम हो जावेगा कि उसमें .१०८. शाश्वत जिनबिंब है,
और अन्य भी छत्रधार चामरधार वगैरह बहुत देवताओं की मूर्तियां हैं । इस से यही निश्चित होता है कि सिद्ध प्रतिमा के भवन को ही सिद्धायतन कहा है।
तथा कई ढूंढिये सिद्धायतन में शाश्वती जिन प्रतिमा मानते हैं, और उस को सिद्धायतन ही कहते है। परंतु जेठे ने तो इस बात का भी सर्वथा निषेध किया है ।। इस से यही मालूम होता है कि बेशक जेठमल्ल महा भारी कर्मी था । इति । १०. गौतम स्वामी अष्टापद पर चढे. :
दशवें प्रश्न में जेठा कुमति लिखता है कि "भगवंत ने गौतमस्वामी को कहा कि | तुम अष्टापद की यात्रा करो तो तुमको केवलज्ञान होगा" यह लिखना महा असत्य है शास्त्रों में तो ऐसे लिखा है कि "एकदा श्रीगौतमस्वामी भगवंत से जुदा किसी स्थान में गये थे, वहां से जब भगवंत के पास आए तब देवता परस्पर बातें करते थे कि भगवंत ने आज व्याख्यानावसर पर ऐसे कहा है कि जो भूचर अपनी लब्धि से श्रीअष्टापद पर्वत की यात्रा करे सो उसी भव में मुक्तिगामी होगा' यह बात सुन कर श्रीगौतमस्वामी ने अष्टापद जाने की भगवंत के पास आज्ञा मांगी। तब भगवंतने बहुत लाभका कारण जान कर आज्ञा दी । जब यात्रा कर के तापसों को प्रतिबोध के भगवंत
समीप आए तब (१५००) तापसों को केवलज्ञान प्राप्त हआ जान कर श्रीगौतमस्वामी उदास हुए कि मुझे केवलज्ञान कब होगा ? तब श्रीभगवंत ने द्रुमपत्रिका अध्ययन तथा श्रीभगवतीसूत्र में चिरसंसिठ्ठोसि में गोयमा इत्यादि पाठोक्त कह के गौतम को स्वस्थ किया । यह अधिकार श्रीआवश्यक, उत्तराध्ययन नियुक्ति, तथा भगवतीवृत्ति में कहा है। परंतु भाग्यहीन जेठे को कैसे दिखे ? कौए का स्वभाव ही होता है कि द्राक्षा को छोड कर गंदगी में चोंच देना । जेठा लिखता है कि "भगवंत ने पांच महाव्रत और पंचवीस भावनारूप धर्म श्रेणिक, कोणिक, शालिभद्र, आदि के आगे कहा है परंतु जिनमंदिर बनवाने का उपदेश दिया नहीं है"। यह लिखना मूर्खता का है । क्या इनके पास से मंदिर बनवाने का इनको ही उपदेश देना भगवंत का कोई जरूरी काम था ? तथापि उन के बनाये जिनमंदिरों का अधिकार सूत्रों में बहुत जगह है तथा हि -
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