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________________ २८ सम्यक्त्वशल्योद्धार । यद्यपि सूत्रों में कहा है तो भी ढूंढक नियुक्ति प्रमुख को नहीं मानते हैं, इस वास्ते ये सूत्रों के विराधक हैं। ४. श्रीठाणांगसूत्र के तीसरे ठाणे के चौथे उद्देश में सूत्र प्रत्यनीक, अर्थ प्रत्यनीक _और तदुभय प्रत्यनीक एवं तीन प्रकार के प्रत्यनीक कहे हैं-यत - सुयं पडुच्च तओ पडिणीया पण्णत्ता सुत्त पडिणीए अत्थपडिणीए तदुभयपडिणीए । ढूंढक इस प्रकार नहीं मानते हैं इस वास्ते ये जिन शासन के प्रत्यनीक हैं । ५. श्रीभगवतीसूत्र में कहा है कि जो नियुक्ति न माने, उसको अर्थ प्रत्यनीक ___ जानना ढूंढक नहीं मानते हैं, इस वास्ते ये अर्थ प्रत्यनीक हैं । ६. श्रीअनुयोगद्वारसूत्र में दो प्रकार का अनुगम कहा है - यत - सुत्ताणुगमे निजुत्ति अणुगमेय-तथा-निजुत्ति अणुगमे तिविहे पण्णत्ते उवधायनिजुत्ति अणुगमे इत्यादि-तथा-उद्देसे निद्देसेनिग्गमेखित्तकाल पूरिसेय । इत्यादि दो गाथा हैं । ढूंढिये पंचांगी को नहीं मानते हैं तो इस सूत्र पाठ का अर्थ क्या करेंगे ? ७. श्रीभगवतीसूत्र के २५ में शतक के तीसरे उद्देश में कहा है-किसुत्तत्थो खलु पढमो बीओ निजुत्ति मिस्सिओ भणिओ। तइओय निरविसेसो । एस विही होइ अणु ओगो १ ॥१।। अर्थ- प्रथम निश्चय सूत्रार्थ देना, दूसरा निर्युक्त सहित देना और तीसरा निर्विशेष (संपूर्ण) देना यह विधि अनुयोग अर्थात् अर्थ कथन की है-इस सूत्र पाठ में तीसरे प्रकार की व्याख्या में भाष्य चूर्णि और टीका इनका समावेश होता है और ढूंढिये नहीं मानते हैं तो पूर्वोक्त पाठ को कैसे सत्य कर दिखावेंगे ? ८. श्रीसूयगडांगसूत्र के २१ में अध्ययन में कहा है- किअहागडाई भुंजंति अण्ण मण्णे सकम्मुणा उवलित्ते वियाणिज्जा अणुवलित्तेतिवा ।।१।। पुणो एएहिं दोहिंठाणेहिं ववहारो न विजइ एएहिं दोहिं ठाणेहिं अणायारं तु जाणए ।।२।। ढूंढिये टीकाको नहीं मानते हैं तो इन दोनों गाथाओं का अर्थ क्या करेंगे ? कितनेक कहते हैं कि टीका में परस्पर विरोध है । इस वास्ते हम नहीं मानते हैं । इसका उत्तर-यदि शुद्ध परंपरागत गुरु की सेवा कर के उनके समीप अध्ययन करें तो कोई भी विरोध न पडे, और यदि विरोध के कारण से ही नहीं मानना कहते हो, तो बत्तीस सूत्रों के मूल पाठमें भी परस्पर बहुत विरोध पडते हैं-जैसे किः १ श्रीनंदिसूत्र में भी यह पाठ है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003206
Book TitleSamyaktva Shalyoddhara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Punyapalsuri
PublisherParshwabhyudaya Prakashan Ahmedabad
Publication Year1996
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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