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जिस के लेख को देख कर अंग्रेज विद्वान् जो कि कल्पसूत्र को बनावटी मानते थे वह | यथार्थ मानने लगे हैं? परंतु अफसोस है ढूंढियों पर, कि जो जैनी कहा के फेर जैनसूत्र को नहीं मानते हैं
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सन् १८८४ में पंडित भगवान्लाल इंद्रजी ने एक रसाला छपवाया था उस में | लिखा है कि उदयगिरि गुफा में हाथी गुफा के शिरे पर एक लेख खुदा हुआ है उस हाथी गुफा के लेख से सिद्ध होता है कि नंदराजा जो कि श्रीमहावीर स्वामी के निर्वाण से थोडे ही काल पीछे हुआ है वह, तथा खारावेला नामक राजा जो ईसा से | १२७ वर्ष पहले जन्मा था और ईसा के पहले १०३ वर्ष गद्दी पर बैठा था वह, जैन धर्मी थे और श्रीऋषभदेव की मूर्ति की पूजा करते थे ।
इत्यादि अनेक प्रमाणों से जिनप्रतिमा का मानना पूजना जैन धर्म की सनातन रीति सिद्ध होती है और इस ग्रंथमें भी प्रायः जिन प्रतिमा संबंधी ही सविस्तर विवेचन | शास्त्रानुसार किया है । इस वास्ते स्थानकवासी ढूंढक लोगों को बहुत नम्रता से विनति की जाती है कि हे प्रिय मित्रो ! जैनशास्त्रों के प्रमाणों से, प्राचीन लेखों के प्रमाणों से, प्राचीन जिनमंदिर और जिनप्रतिमाओं के प्रमाणों से, अन्यमतियों के प्रमाणों से तथा अंग्रेज विद्वानों के प्रमाणों से इत्यादि अनेक प्रमाणों से सिद्ध होता है कि प्रत्येक जैनी जिनप्रतिमा को मानते और वंदना, नमस्कार, पूजन, सेवा, भक्ति करते थे । तो फिर तुम लोग किस वास्ते हठ पकड के जिनप्रतिमा का निषेध करते हो ? | इसवास्ते हठ को छोड कर श्रावकों को श्रीजिनप्रतिमा पूजने का निषेध मत करो जिस से तुम्हारा और तुम्हारे श्रावकों का कल्याण होवे ॥
यद्यपि सत्य के वास्ते मरजी में आवे वैसा लिखने में कोई हरकत नहीं है तथापि इस पुस्तक में जो कोई कठिन शब्द लिखा गया है तो उस में समकितसार ही कारणभूत है क्योंकि यादृशे तादृशमाचरेत् इस न्याय से समकितसार में लिखी बातों का यथायोग्य ही उत्तर दिया गया होगा । न किसी के साथ द्वेष है और न कठिन शब्दों | से कोई अधिक लाभ है यही विचार के समकितसार की अपेक्षा इस ग्रन्थ में कोई | कठिन शब्द रहने नहीं दिया है, यदि कोई होगा भी, तो वह फक्त समकितसार के मानने वालों को हित शिक्षारूप ही होगा ।
इस ग्रंथ के छपाने का उद्देश्य मात्र यही है कि जो अज्ञानता के प्रसंग से उन्मार्गगामी हुए हो वह भव्यजीव इसको पढके हेयोपादेय को समझकर सूत्रानुसार श्रीतीर्थंकरगणधर पूर्वाचार्यप्रदर्शित सत्य मार्ग को ग्रहण करें और अज्ञानीप्रदर्शित उन्मार्ग का त्याग कर देवें, परंतु किसी की वृथा निंदा करने का अभिप्राय नहीं है इस वास्ते इस पुस्तक को पढनेवालोंने सज्जनता धारन कर के और द्वेष भाव को त्याग के,
१ देखो प्रोफेसर वुल्हर की रीपोर्ट अथवा जैनप्रश्नोत्तर तथा तत्त्वनिर्णय प्रासादग्रंथ ।
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