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________________ | "ढूंढियानो रासडो" इस नाम से किताब छपी है उस में है । पूर्वोक्तचर्चा के समय समकितसार के कर्ता जेठमल भी हाजर थे परंतु पराजयकोटि में आकर वह भी हो गये थे इस तरह वारंवार निग्रह कोटि में आकर अपने हदय में अपनी असत्यता को जान कर भी निज दुर्मतिकल्पना से कुयुक्तियों का संग्रह करके समकितसार जैसा ग्रंथ बनाना यह केवल अपनी मूर्खता ही प्रकट करनी है। आधुनिक समय में भी कितने ही ठिकाने जैनी और ढूंढियों की चर्चा होती है वहां भी ढूंढिये निग्रहकोटि में आकर पराजयको ही प्राप्त होते हैं तथापि अपने हठ को नहीं छोडते हैं, यही इन की संपूर्ण मूर्खता का चिह्न है । ढूंढकमत के आदि पुरुष का मूल आशय जिनप्रतिमा के निषेध का ही था, और इसी वास्ते उस ने जिनप्रतिमा संबंधी परिपूर्ण हकीकतवाले जो जो सूत्र थे उन का निषेध किया, इस तरह निषेध करने से उन सूत्रों की अन्य बातों का भी निषेध हो गया और इस से इन ढूंढियों को | बहुत बातें जैनमत विरुद्ध अंगीकार करनी पड़ी। महआ (काठियावाड में श्रीमहावीर स्वामी के समयकी श्रीमहावीर स्वामी की मूर्ति है जो कि अद्यापि पर्यंत श्रीजीवत्स्वामी की प्रतिमा कहाती है। औरंगाबाद में अनुमान २४०० वर्ष से पहले का श्रीपद्मप्रभ स्वामी का मंदिर है| | जिस के वास्ते अंग्रेज ग्रंथकार भी साक्षी देते हैं। श्रीशत्रुजय तीर्थों पर हजारों ही वर्षों के मंदिर विद्यमान हैं । श्रीसंप्रतिराजा जो कि श्रीमहावीर स्वामी के पीछे २९० वर्ष हुआ है उस ने सवालाख जिनप्रासाद और सवाकोटि जिनबिंब कराये हैं, जिन में से हजारों जिनचैत्य तथा जिन-प्रतिमा ठिकाने २ देखने में आती हैं। पोर्तुगाल के हंगरी प्रांत में बुदापेस्त शहर में श्रीमहावीर स्वामी की बहुत प्राचीन मूर्ति जमीन में से एक अंग्रेज को मिली, जिस को अंग्रेज बहादुर ने बाग के बीच छत्री बनवा कर स्थापन किया है। मूर्ति बहुत ही अद्भुत है जिस का फोटो लाहौर के रजिस्टार स्टाईन साहिब का दिया हुआ हमारे पासे है । इस से साफ जाहिर होता है कि एक |समय वहां जैन धर्म जरूर था और जैन धर्म में मर्ति का मानना प्रथम से ही है। आजकल मूर्ति के खंडन में कटिबद्ध आर्यसमाज के आचार्य स्वामी दयानंद सरस्वती भी अपने ग्रंथों में मंजूर कर चुके हैं कि सब से पहले मूर्ति का मानना जैनियों से ही शुरू हुआ है और बाकी सर्व मतों वालोंने उन की देखादेखी नकल की है। __ मथुरा के टीले में से श्री महावीर स्वामी की मूर्ति निकली है जो बहुत प्राचीन है अमृतसर, होश्यारपुर, फगवाडा, बगीया, जेसे प्रमुख स्थानों में जो जो कारवाई हुई थी प्रायः पंजाब के सर्व जैनी और ढूंढिये जानते हैं, कई क्षत्री ब्राह्मण वगैरह भी जानते हैं कि सभा मंजूर कर के सभा के समय ढूंढिये हाजर नहीं हुए ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003206
Book TitleSamyaktva Shalyoddhara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Punyapalsuri
PublisherParshwabhyudaya Prakashan Ahmedabad
Publication Year1996
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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