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________________ १२८ सम्यक्त्वशल्योद्धार उत्तर-श्रीपन्नवणासत्र में समच्चय व्यंतर का स्थान कहा है और ग्रंथो में विशेष खुलासा किया है । ४९. "जैनमार्गी जीव नरक में जाने के नाम से भी डरता है, ऐसे सूत्र में कहा है, और प्रकरण में कोणिक राजाने सातवीं नरक में जाने वास्ते महापाप के कार्य किये ऐसे कहा उत्तर - जैनमार्गी जीव नरक में जाने के नाम से भी डरता है सो बात सामान्य है, एकांत नहीं । और कोणिक के प्रश्न करने से भगवंत ने उस को छठी नरक में जावेगा ऐसे कहा तब छठी नरक में तो चक्रवर्ती का स्त्रीरत्न | जाता है ऐसे समझ के छठी से सातवीं में जाना अपने मन में अच्छा मान के उस ने बहुत आरंभ के कार्य किये है । तथा ढूंढिये भी जैनमार्गी नाम धरा के अरिहंत के कहे वचनों को उत्थापते हैं, जिन प्रतिमा को निंदते हैं, सूत्रविराधते हैं । भगवंतने तो एक वचन के भी उत्थापक को अनंत संसारी कहा है । यह बात ढूंढिये जानते हैं तथापि पूर्वोक्त कार्य करते हैं और नरक में जाने से नहीं डरते हैं, निगोद में जाने से भी नहीं डरते हैं, क्योंकि शास्त्रानुसार देखने से मालूम होता है कि इन की प्रायः नरक निगोद के सिवाय अन्य गति नहीं है। ५०. "कूर्मापुत्र केवलज्ञान पाने के पीछे ६ महिने घर में रहे कहा है" उत्तर-जो गृहस्थावास में किसी जीव को केवलज्ञान हो तो उसको देवता साधु का भेष देते हैं और उस के पीछे वे विचरते तथा उपदेश देते हैं । परंतु कुर्मापुत्र को ६ महिने तक देवताने साधु का भेष नहीं दिया और केवलज्ञानी जैसे ज्ञान में देखे वैसे करे परंतु इस बात से जेठमल के पेट में क्यों शूल हुआ ? सो कुछ समझ में नहीं आता है। ५१. "सूत्र में सर्वदान में साधु को दान देना उत्तम कहा है और प्रकरण में विजय सेठ तथा विजया सेठानी को जिमावने से ८४००० साधु को दान दिये जितना फल कहा"। उत्तर-विजय सेठ और विजया सेठानी गृहस्थावास में थे । उन की युवा अवस्था थी, तत्काल का विवाह हुआ हुआ था, और कामभोग तो उन्होंने दृष्टि से भी देखे नहीं थे । ऐसे दंपतीने मन-वचन-काया त्रिकरण शुद्धि से एक शय्या में शयन करके फिर भी अखंड धारा से शील(ब्रह्मचर्य)व्रत | पालन किया है । इस वास्ते शील की महिमा निमित्त पूर्वोक्त प्रकार कथन किया है। और उन की तरह शील पालना सो अति दुष्कर कृत्य है। ५२. "भरतेश्वर ने ऋषभदेव और ९९ भाइयों के मिला कर सौ स्थूभ कराये ऐसे प्रकरण में कहा है और सूत्र में यह बात नहीं है"। उत्तर-भरतेश्वर के स्थूल कराने का अधिकार श्री आवश्यक सूत्रमें है, यतः शुभसय भाउयाणं चउव्विसं चेव जिणधरे कासी ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003206
Book TitleSamyaktva Shalyoddhara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Punyapalsuri
PublisherParshwabhyudaya Prakashan Ahmedabad
Publication Year1996
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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