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________________ १२४ परंतु गुरुगम बिना सहमतियों को इस बात की समझ कहांसे होगी ? २८. "श्रीभगवतीसूत्र में महावारस्वामी ने छद्यस्थता में अंत की रात्रि में दश स्वप्न ऐसे कहा । और श्रीआवश्यकसूत्र में प्रथम चौमासे देखे ऐसे कहा है"। उत्तर | श्रीभगवतीसूत्र में जो कहा है उस का भावार्थ यह है कि छद्यस्थता में अंत रात्रि में अर्थात् जिस दिन की रात्रि में देखे उस रात्रि के अंतिम भाग में देखे ऐसे समझना । | इस वास्ते श्रीआवश्यकसूत्र में प्रथम चौमासे देखे ऐसे कहा है सो सत्य है तो भी इस में मतांतर है। २९-३०-३१. "श्रीउत्तराध्ययन में कहा है कि संयम लेने में समयमात्र प्रमाद नहीं | करना और गणिविजयपचने में कहा है कि तीन नक्षत्र में दीक्षा नहीं लेनी, चार नक्षत्र में लोच नहीं करना । पांच नक्षत्र में गुरु की पूजा करनी" । उत्तर- - श्रीउत्तराध्ययनसूत्र में जो बात कही है सो सामान्य और अपेक्षापूर्वक है परंतु अपेक्षा से अनजान जेठे की समझ में यह बात नहीं आई है । तथा गणिविजय पयन्ने की बात भी सत्य है । | गणिविजयपयन्ने की बात उत्थापने में जेठे का हेतु जिनप्रतिमा के उत्थापन करने का है क्योंकि आप ही जेठे ने गणिविजयपयन्ने की जो गाथा लिखी है उसमें "धणिठ्ठाहि सयभिसा साइ सवणोय पुणव्वसु एएस गुरुसुस्सुसा चेड्याणं च पूर्वणं ॥ अर्थ "धनिष्ठा, शतभिषा, स्वाति, श्रवण, और पुनर्वसु इन पांच नक्षत्रों में गुरुमहाराज की सुश्रूषा अर्थात् सेवाभक्ति करनी और इन्हीं नक्षत्रों में जिनप्रतिमा का पूजन करना" ऐसे कथन है । इस से यह नहीं समझना कि पूर्वोक्त नक्षत्रों से अन्य | नक्षत्रों मे गुरुभक्ति और देवपूजा नहीं करनी, परंतु पूर्वोक्त पांच नक्षत्रों में विशेष कर के करनी जिस से बहुत फल की प्राप्ति हो । जैसे श्रीठाणांगसूत्र के दशव ठाणे में कहा है कि दश नक्षत्रों में ज्ञान पढे तो वृद्धि होगी "दस णक्खत्ता णाणस्स वुढ्ढीकरा पण्णत्ता" यहां भी ऐसे ही समझना । इस वास्ते जेठमल की कुयुक्ति खोटी है। जिनवचन स्याद्वाद है, एकांत नहीं। जो एकांत माने उन को शास्त्रकार ने मिथ्यात्वी कहा है 1 सम्यक्त्वशल्योद्धार ३२-३३. "श्रीजंबूद्वीपपन्नत्ति में पांचवें आरे ६ संघयण और ६ संस्थान कहे और | श्रीतदुलवियालिय पयन्ने में सांप्रतकाल में संवार्त्त संघयण और दंडक संस्थान कहा है" । उत्तर- श्रीजंबूद्वीपपन्नत्ति में पांचवे आरे में मुक्ति कही है पिसांप्प्रतकाल में जैसे किसी को केवलज्ञान नहीं होता है । वैसे पांचवे आरे के प्रारंभ में ६ संघयण और ६ संस्थान थे । परंतु हाल एक छेवडा संघयण और हुडक संस्थान है । यदि ६ ही संघयण और ६ ही संस्थान हाल हैं, ऐसे कहोगे तो जंबूदीपपन्नत्ति में कहे मुताबिक | हाल मत्ति भी प्राप्त होनी चाहिये । यदि इस में अपेक्षा मानोगे तो अन्य बातों में अपेक्षा श्रीसमवायांगसूत्र में भी यही कथन है ।। १ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003206
Book TitleSamyaktva Shalyoddhara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Punyapalsuri
PublisherParshwabhyudaya Prakashan Ahmedabad
Publication Year1996
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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