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________________ ११२ सम्यक्त्वशल्योद्धार | आशय तुम बेगुरे नहीं समझ सकते हो । जेठमल ने लिखा है कि "जैनधर्मी आरंभ में धर्म मानते हैं"। उत्तर-जैनधर्मी आरंभ को धर्म नहीं मानते हैं, परंतु जिनाज्ञा तथा जिनभक्ति में धर्म और उस से महापुण्यप्राप्ति यावत् मोक्षफल श्रीरायपसेणीसूत्र के कथनानुसार मानते हैं। जेठमल जिनमंदिर और जिनप्रतिमा कराने बाबत इस प्रश्नोत्तर में लिखता है, परंतु उस का प्रत्युत्तर प्रथम दो तीन वार लिखा चुके हैं। जेठमलने "देवकुल" शब्द का अर्थ सिद्धायतन किया है, परंतु देवकुल शब्द अन्य तीर्थीदेव के मंदिर में बोला जाता है । जिनमंदिर के बदले देवकुल शब्द लौकिक में नहीं बोला जाता है । और सूत्रकार ने किसी स्थल में भी नहीं कहा है, सूत्रकार ने तो सूत्रों में जिनमंदिर के बदले सिद्धायतन, जिनघर, अथवा चैत्य कहा है, तो भी जेठे ने खोटी खोटी कुयुक्तियां लिखके स्वमति कल्पना से जो मन में आया सो लिख मारा है। सो उसके मिथ्यात्व के उदय का प्रभाव है। सिद्धायतन शब्द सिद्ध प्रतिमा के घर आश्री है । और जिन घर शब्द अरिहंत के मंदिर आश्री द्रौपदी के आलावे में कहा है, इस वास्ते इन दोनों शब्दों में कुछ भी प्रतिकूलभाव नहीं है, भावार्थ में तो दोनों एक ही अर्थ को प्रकाशते हैं । इति । २४. साधु जिनप्रतिमा की वेयावञ्च करे : श्रीप्रश्नव्याकरणसूत्र के तीसरे संवर द्वार में साधु पंद्रह बोल की वेयावच्च करे ऐसा कथन है। उन में पंद्रहवाँ बोल जिनप्रतिमा का है तथापि जेठे निन्हवने चौदह बोल ठहरा के पंदरवें बोल का अर्थ विपरीत किया है । इस वास्ते सो सूत्रपाठ अर्थ सहित लिखते हैं । यतः अह केरिसए पुण आराहए वयमिणं जेसे उवही भत्तपाणे संगहदाण कुसले अञ्चंत बाल, १. दुब्बल, २. गिलाण, ३. बुढ्ढ, ४. खवगे, ५. पवत्त, ६. आयरिय, ७. उवझाए, ८. सेहे, ९. साहम्मिए, १०. तवस्सी, ११. कुल, १२. | गण, १३. संघ, १४. चेइयठे, १५, निजरठी वेयावञ्चे अणिस्सियं दसविहं बहुविहं पकरेइ ॥ अर्थ - शिष्य पूछता है "हे भगवन् ! कैसा साधु तीसरा व्रत आराधे ? " गुरु कहते हैं "जो साधु वस्त्र तथा भातपानी यथोक्त विधि से लेना और यथोक्त विधि से आचार्यादिक को देना । उन में कुशल हो सो साधु तीसरा व्रत आराधे । (१) अत्यंत बाल (२) शक्तिहीन (३) रोगी (४) वृद्ध (५) मास क्षपणादि करने वाला प्रवर्तक (६) आचार्य (७) उपाध्याय (८) नव दीक्षित शिष्य (९) साधर्मिक (१०) तपस्वी (११) कुलचांद्रादिक (१२) गणकुल का समुदाय कौटिकादिक (१३) संघकुलगण का समुदाय चतुर्विध संघ (१४) और चैत्य जिनप्रतिमा इन का जो अर्थ उन में निर्जरा का अर्थी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003206
Book TitleSamyaktva Shalyoddhara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Punyapalsuri
PublisherParshwabhyudaya Prakashan Ahmedabad
Publication Year1996
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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