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________________ १०२ पभूणं भंते चमरे असुरिंदे असुरकुमारराया चमर चंचाए रायहाणिए सभाए सुहम्माए चमरंसि सिंहासणंसि तुडियणं सह्निं दिव्वाइं भोगभोगाइ भुंजमाणे विहरित्तए ? णोइणठ्ठे समठ्ठे से केणठ्ठेणं भंते एवं वुच्चर णो पभू जाव विहरित्तए ? गोयमा ! चमरस्सणं असुरिंदस्सअसुरकुमाररन्नो चमरचंचाए रायहाणिए सभाए सुहम्माए माणवर चेइयखंभें वइरामएस गोलवट्टसमुग्गएसु बहुइओ जिणसक्कहाओ सन्निक्खित्ताओ चिठ्ठति जाओणं चमरस्स असुरिंदस्स असुरकुमाररन्नो अन्ने सिं च बहुणं असुरकुमाराणं देवाणं देवीणय अञ्चणिजाओ वंदणिज्जाओ नमसणिज्जाओ । पूयणिज्जाओ सक्कारणिज्जाओ सम्माणणिज्जाओ कल्लाणं मंगलं देवयं चेइयं पज्जवासणिजाओ भवंति से तेणठेणं अजो एवं वुच्चइ णो पभू जाव विहरित्तए । पभूणं भंते चमरे असुरिंदे असुरराया चमरचंचाए रायहाणिए | सभाए सुहम्माए चमरंसि सिंहासणंसि चउसठ्ठिए सामाणियसाहस्सिहिं ताय त्तिसाए जाव अन्नेहिं असुरकुमारेहिं देवेहिं देवीहिय सध्दिं संपरिवुडे महया नट्ट जाव भुंजमाणे विहरित्तए ? हंता केवल परियारिठ्ठिए नो चेव णं | मेहुणवत्तया ।। सम्यक्त्वशल्योद्धार अर्थ गौतमस्वामी ने महावीरस्वामी को प्रश्न किया कि "हे भगवन् ! चमर | असुरदेव का इंद्र असुर कुमार का राजा, चमर चंचानामा राज्यधानी में सुधर्मानामा सभा में, चमरनामा सिंहासन के ऊपर रहा हुआ तुडिय अर्थात् इंद्राणी का समूह उस | के साथ देवता संबंधी भोगों को भोगता हुआ विचरने को समर्थ है ?" भगवंत कहते हैं। | "यह अर्थ समर्थ नहीं अर्थात् भोग न भोगे" फिर गौतमस्वामी पूछते हैं "हे भगवन् ! भोग भोगता हुआ विचरने को समर्थ नहीं ऐसा किस कारण से कहते हो ?" प्रभु कहते हैं "हे गौतम ! चमर असुरेंद्र असुरकुमार राजा की चमर चंचा राज्यधानी में सुधर्मा नामा सभा | में माणवक नामा चैत्यस्तंभ में वज्रमय बहुत गोल डब्बे हैं । उन में बहुत जिनेश्वर की दाढा थापी हुई हैं जो दाढा चमर असुरेंद्र असुरकुमार राजा के तथा अन्य बहुत असुर कुमार देवताओं के और देवियों के अर्चने योग्य, वंदना करने योग्य, नमस्कार करने योग्य, पूजने योग्य, सत्कार करने योग्य, सन्मान करने योग्य, कल्याणकारी मंगलकारी, | देव संबंधी चैत्य अर्थात् जिन प्रतिमा की तरह सेवा करने योग्य हैं । हे आर्य ! उस कारण से ऐसे कहते हैं कि देवियों के साथ भोग भोगने को समर्थ नहीं है "। फिर | गौतमस्वामी पूछते है कि "चमर असुरेंद्र असुर कुमार का राजा, चमर चंचा राज्यधानी में सुधर्मा सभा में चमर सिंहासनोपरि बैठा हुआ चौसठ हजार सामानिक देवताओं के साथ तथा तैंतीस त्रायत्रिंशक के साथ यावत् अन्य भी असुर कुमार जाति के देवताओं | के तथा देवियों के साथ परवरे हुआ बड़े भारी नाटक आदिको देखता हुआ विचरने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003206
Book TitleSamyaktva Shalyoddhara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Punyapalsuri
PublisherParshwabhyudaya Prakashan Ahmedabad
Publication Year1996
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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